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________________ प्राक्कथन विगत अर्ध शताब्दिसे जन विद्याके अध्ययनकी ओर भारतीय एवं पाश्चात्य दोनों ही विद्वानोका ध्यान जाने लगा है। भारतीय विद्वानोमें डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन्, महापडित राहुल साकृत्यायन एवं डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल मनीषियोने जैन दर्शन, साहित्य एव सस्कृतिको महत्ताको स्वीकार किया है और उसके अध्ययनपर बल दिय वर्तमानमें देशके कुछ प्रमुख विश्वविद्यालयोमें जैन विद्याके अध्ययनकी विशेष व्यवस्था की गयी है। साथ ही जैन दर्शनके प्रमुख अग अहिंसा, अनेकान्तवाद एव अपरिग्रहवादपर दार्शनिक चर्चायें होने लगी हैं। मनीषियोका यह प्रयास निस्सदेह प्रशसनीय है। जैन विद्याके विभिन्न पक्षोकी व्याख्या करनेवाली प्रस्तुत पुस्तकके लेखक डॉ० दरबारीलालजी कोठिया दर्शनशास्त्रके मर्मज्ञ एव प्रतिभासम्पन्न मनीषी है । उन्होंने विगत तीन-चार दर्शकोमें जैन दर्शनका विश्वविद्यालयोमें प्रतिनिधित्व ही नहीं किया, किन्तु समय-समयपर आयोजित विभिन्न सेमिनारो, सगोष्ठियो एव विद्वत् परिषदोमें भी महत्त्वपूर्ण प्रकाश डाला है। डॉ० कोठियाजीने न्यायदीपिका, आप्तपरीक्षा, द्रव्यसग्रह, प्रमाणप्रमेयकलिका एव प्रमाणपरीक्षा जैसे जैन न्यायके ग्रन्थोका विद्वत्तापूर्ण सम्पादन किया है तथा जैन दर्शनके प्रामाणिक विश्लेषणात्मक अध्ययनके साथ उसकी प्रत्येक मान्यताके सम्बन्धमें अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त की है। वास्तवमें डॉ० कोठियाका यह अध्ययन एक ऐसे विद्वान्का अध्ययन है जिसने मूल ग्रन्थ, भाष्य और टीकाओंके सूक्ष्म अध्ययनके साथ ही उनकी सूक्ष्मतम समस्याओका अध्ययन भी किया है। डॉ० कोठियाने 'जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान-विचार' जैसे दार्शनिक एव न्यायशास्त्रके महत्त्वपूर्ण पक्षको उद्घाटित करनेवाले विषयपर अपना शोध-प्रबन्ध लिखकर दार्शनिक जगतमें अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। उन्होंने प्रस्तुत शोधप्रबधमें जैन परम्परामें अनुमानकी भारतीय तर्कशास्त्रमें सर्वांगीण अर्हता स्थापित करनेमें सफलता प्राप्त की है । उनका 'जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन' शोध-निबन्धसग्रह तो यशस्वी कृति है। प्रस्तत पस्तकमें डॉ० कोठियाके करीव ६० निबन्धोका संग्रह है, जो पहिले विभिन्न पत्रपत्रिकाओमें या तो प्रकाशित हो चुके हैं या फिर सेमिनारों एव सगोष्ठियोमें उनके द्वारा पढे जा चके हैं। लेकिन ये निबन्ध आज भी उतने ही महत्त्वपूर्ण है जितने पहिले माने जाते थे और भविष्यमें उनका महत्त्व उसी तरह बना रहेगा। इन निबन्धोका विषय एक न होकर धर्म, दर्शन, न्याय, इतिहास, पुरातत्व एव साहित्यसे सम्बन्धित हैं। इनमें कुछ निबन्धोको छोड कर अधिकाश निबन्ध छोटे-छोटे हैं और जिज्ञासुओ एव विद्यार्थियोमें तदविषयक रुचिको जाग्रत करनेवाले है । पुण्य और पापका शास्त्रीय दष्टिकोण. जीवनमें सयम एव चारित्रका महत्त्व, महावीरकी धर्म-देशना जैसे बहुचचित एव रुचिकर विषयोपर लेखकने बहत सन्दर प्रकाश डाला है। व्यवहारनयसे पुण्यको उपादेय मानते हुए भी उसे परमपद (मोक्ष) प्राप्त करनेमें बाधक बतलाया है । इसी तरह रोग, शोक, आधि, व्याधि आदिका मूल कारण वासना एव असयमको माना है, जो साधारण-से-साधारण पाठकको भी रुचिकर लगनेवाला है। इसी तरह आचार्य कुन्कुन्द, गद्धपिच्छ, समन्तभद्र. वादीसिंह. नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, आचार्य शान्तिसागर, नमिसागर, महापडित टोडरमल
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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