SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भौतिकता-प्रिय जगत्में उनके 'आचार-धर्म' के आचरणकी बडी आवश्यकता है । महाभारतके एक उपाख्यानंमें निम्न श्लोक आया है जानामि धर्म न च मे प्रवृत्ति , जानाम्यधर्म न च मे निवृत्ति । केनापि देवेन हृदि स्थितेन, यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ।। मैं धर्मको जानता हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्मको भी जानता हूँ, लेकिन उससे निवृत्ति नही । हृदयमें स्थित कोई देव जैसी मुझे प्रेरणा करता है, वैसा करता हूँ।' ___यथार्थत यही स्थिति आज अमनीषी और मनीषी दोनोकी हो रही है । बाह्यमें वे भले ही धर्मात्मा हो, पर अन्तस् प्राय सभीका तमोव्याप्त है। परिणाम यह हो रहा है कि प्रत्येक व्यक्तिकी नैतिक और आध्यात्मिक चेतना शून्य होती जा रही है और भौतिक चेतना एव वैषयिक इच्छाएँ बढती जा रही है। यदि यही भयावह दशा रही तो मानव-समाजमें न नैतिकता रहेगी और न आध्यात्मिकता तथा न वैसे व्यक्तियोका सद्भाव कही मिलेगा । अत इस भौतिकताके युगमे भगवान् महावीरका 'अचारधर्म' विश्वके मानव समाजको बहुत कुछ आलोक दे सकता है-आध्यात्मिक एव नैतिक मार्गदर्शन कर सकता है। उसके आचरणसे मानव नियत मर्यादामे रहता हुआ ऐन्द्रियिक विषयोको भोग सकता है और जीवनको नैतिक तथा आध्यात्मिक बनाकर उसे सुखी, यशस्वी और सब सुविधाओसे सम्पन्न भी बना सकता है। दूसरोको भी वह शान्ति और सुख प्रदान कर सकता है। अहिंसक व्यवहारकी आवश्यकता मानव-समाज सुख और शान्तिसे रहे, इसके लिए महावीरने अहिंसा धर्मका उपदेश दिया। उन्होने बताया कि दूसरोको सुखी देखकर सुखी होना और दुखी देखकर दुखी होना ही पारस्परिक प्रेमका एयमात्र साधन है । प्रत्येक मनुष्यका कर्तव्य है कि वह किसी भी मनुष्य, पशु या पक्षी, यहांतक कि छोटेसे-छोटे जन्तु, कीट, पतग आदिको भी न सताये । प्रत्येक जीव सुख चाहता है और दुखसे बचना चाहता है । इसका शक्य उपाय यही है कि वह स्वय अपमे प्रयत्नसे दूसरोको दुखी न करे और सम्भव हो तो उन्हें सुखी बनानेकी ही चेष्टा करे। ऐसा करनेपर वह सहजमें सुखी हो सकता है । अत पारस्परिक अहिंसक व्यवहार ही सुखका सबसे बडा और प्रधान साधन है। इस अहिंसक व्यवहारको स्थायी बनाये रखनेके लिए उसके चार उपसाधन हैं । १ पहला यह कि किसीको घोखा न दिया जाय, जिससे जो कहा हो, उसे पूरा किया जाय । ऐसे शब्दोका भी प्रयोग न किया जाय, जिससे दूसरोको मार्मिक पीडा पहुँचे । जैसे अन्धेको अन्धा कहना या काणेको काणा कहना सत्य है, पर उन्हें पीडा-जनक है। २ दूसरा उपसाधन यह है कि प्रत्येक मनुष्य अपने परिश्रम और न्यायसे उपार्जित द्रव्यपर ही अपना अधिकार माने । जिस वस्तुका वह स्वामी नही है और न उसे अपने परिश्रम तथा न्यायसे अर्जित किया है उसका वह स्वामी न बने । यदि कोई व्यवसायी व्यक्ति उत्पादक और परिश्रमशील प्रजाका न्याययुक्त भाग हडपता है तो वह व्यवसायी नही। व्यवसायी वह है जो न्यायसे द्रव्यका अर्जन करता है । छलफरेब, धोखाधडी या जोरजबर्दस्तीसे नही । अन्यथा वह प्रजाकी अशान्ति तथा कलहका कारण बन जायगा। अत न्यायविरुद्ध द्रव्यका अर्जन दुख तथा सक्लेशका वीज ह, उसे नही करना चाहिए ।
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy