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________________ महावीरका आधार-धर्म महावीर और तत्कालीन स्थिति लोकमें महापुरुषो का जन्म जन-जीवनको ऊँचा उठाने और उनका हित करनेके लिए होता है। भग वान् महावीर ऐसे ही महापुरुष थे उनमें लोक-कल्याणकी तीव्र भावना, बसाधारण प्रतिभा, अद्वितीय तेज और अनुपम आत्मबल था । बचपनसे ही उनमें अलोकिक धार्मिक भाव और सर्वोदयकी सातिशय लगन होनेसे नेतृत्व, लोकप्रियता और अबूभूत संगठनके गुण विकसित होने लगे थे। भौतिकता के प्रति उनकी न आसनित थी ओर न आस्था उनका विश्वास आत्माके केवल अमरत्वमें ही नही, किन्तु उसके पूर्ण विकसित रूप परमात्मत्वमें भी था। अतएव वे इन्द्रिय-विषयोको तापकृत् और तृष्णाभिवर्द्धक मानते थे। एक लोकपूज्य एव सर्वमान्य ज्ञातृवशी क्षत्रिय घराने में उत्पन्न होकर और वहाँ सभी सामग्रियोके सुलभ होनेपर भी वे राजमहल में तीस वर्ष तक 'जलमें भिन्न कमल' की भांति अथवा गीताके शब्दो में 'स्थितप्रज्ञ' की तरह रहे, पर उन्हें कोई इन्द्रिय-विषय लुभा न सका। उनकी आँखोसे बाह्य स्थिति भी ओझल न थी। राजनैतिक स्थिति यद्यपि उस समय बहुत ही सुदृढ और आदर्श थी भी लिच्छिवियोका सयुक्त एवं सगठित शासन या और ये बढे प्रेम एव सहयोग से अपने गणराज्यका संचालन करते थे। राजा चेटक इस गणराज्य के सुयोग्य अध्यक्ष थे और वैशाली उनकी राजधानी थी । वैशाली राजनैतिक हलचलों तथा लिच्छवियोकी प्रवृत्तियों की केन्द्र थी । पर सबसे बडी जो न्यूनता थी वह यह थी कि शासन समाज और धर्मके मामले में मौन थाउसमें कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता था। फलत सामाजिक और धार्मिक पतन पराकाष्ठाको पहुँच चुका या तथा दोनोकी दशा अत्यन्त विरूप रूप धारण कर चुकी थी। छुआछूत, जातीयता और ऊंच-नोच भेदने समाज तथा धर्मकी जडोको खोखला एव जर्जरित बना दिया था । अज्ञान, मिथ्यात्व, पाखण्ड और अपने अपना डेरा डाल रखा था इस वाह्य स्थितिने भी भगवान् महावीरको आँसोको अद्भुत प्रकाश दिया और वे तीस वर्षकी भरी जवानी में ही समस्त वैषयिक सुखोपभोगोंको त्यागकर और उनसे विरक्ति धारण कर साधु बन गये थे। उन्होने अनुभव किया था कि गृहस्य या राजाके पदकी अपेक्षा साधुका पद अत्यन्त उन्नत हैं और इस पदमें ही तप, त्याग तथा सयमकी उच्चाराधना की जा सकती है और आत्माको 'परमात्मा' बनाया जा सकता है । फलस्वरूप उन्होने बारह वर्ष तक कठोर तप और सयमकी भाराधना करके अपने चरम लक्ष्य वीतराग सर्वज्ञत्व अथवा परमात्मत्वकी शुद्ध एव परमोच्च अवस्थाको प्राप्त किया था। महावीर द्वारा आचारधर्मकी प्रतिष्ठा उन्होने जिस 'सुपथ' पर चलकर इतनी ऊँची उन्नति की और असीम ज्ञान एवं अक्षय आनन्दको प्राप्त किया, उस 'सुपय' को जनकल्याणके लिए भी उन्होने उसी तरह प्रदर्शित किया, जिस तरह स बडे परिश्रम और कठोर साधनासे प्राप्त अपने अनुपम चिकित्सा-ज्ञान द्वारा करुणा-बुद्धिसेरोग लोगोका रोगोपशमन करता है और उन्हें जीवन दान देता है । महावीरके 'आचार-धर्म' पर चलकर प्रत्येक व्यक्ति लौकिक और पारलौकिक दोनो ही प्रकारके हितोको कर सकता है। आजके इस चाकचिन एम - ४४
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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