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________________ जीवनमें संयमका महत्त्व मानव-जीवनको सूखमय बनानेके लिए सयमकी बहुत आवश्यकता है। बिना सयमके इस दुखमय ससारसे मुक्ति नही मिल सकती। एक तो ससार स्वय दुखमय है। दूमरे, हम भी विविध वासनाओकी सृष्टि करके जीवनको भयानक गर्त में डाल देते हैं। हमारी वासनायें-इच्छायें दिन-दूनी रात-चौगुनी बढती ही चली जाती हैं । ज्यो ही एक इच्छाकी पूर्ति होती है त्यो ही दूसरी इच्छा-वासना आ खडी होती है । इस प्रकार एकके बाद दूसरी और दूसरीके बाद तीसरी, तीसरीके बाद चौथी आदि वासनाओका ताता लगा ही रहता है । भले ही जीवनका अन्त हो जाय, पर वासनाओका अन्त नही होता। अतएव कहना होगा कि वासनायें अपरिमित है, उनकी पूर्ति होना कठिन ही नही बल्कि असम्भव है, क्योकि उनके विषय परिमित हैं। प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि "दुनियाकी सारी चीजें मुझे ही मिल जायें" तव यह कैसे सम्भव है कि अनन्तानन्त जीव-राशिको इच्छायें-वासनायें परिमित वस्तुओसे पूर्ण हो जायें । एक विद्वान्का यह वचन प्रत्येक मानवको अपने हृत्पटलपर अकित कर लेना चाहिये आशागर्त प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् । कस्य किं कियदायाति वृथा वो विषयेषिता । -आत्मानुशासन । ___ अर्थात्-अये । दु खागार ससार-निमग्न प्राणियो । तुम्हारी वासनायें-इच्छायें बहे भारी गड्ढेके समान हैं और यह दृश्यमान विश्व उसमें अणुके बराबर है तब उनकी पूर्ति अणु-विश्वसे कैसे हो सकती है ? अत तमको विषयोमें अभिलाषा करना व्यर्थ है। यह भी ध्रुव सत्य समझो कि जिसकी अभिलाषा की जावे, वह प्राय मिलती भी नही है। क्या यह नही सुना है कि "विन मागे मोती मिले, मागे मिले न चन" जीवनमे जितने भी रोग, शोक, आधि, व्याधि आदि दुख भोगने पडते है, उन सबका मूल कारण वासना एव असयम ही है। यदि वासना-इच्छा न हो तो दुख कभी हो ही नही सकता, यह विलकुल यथार्थ है । इन्द्रिय और मनको विषयोमें स्वच्छन्द प्रवृत्तिका नाम ही वासना है । इसीको इन्द्रिय-असयम कहते हैं । मनसश्चेन्द्रियाणा च यत्स्वस्वार्थे प्रवर्तनम् । यदृच्छयेव तत्तज्ञा इन्द्रियासयम विदु ॥ अर्थात-मन और इन्द्रियोंके अपने-अपने विषयमें स्वच्छन्द प्रवर्तनको विद्वान् इन्द्रियासयम कहते हैं । सचमचमें मनुष्य इसके चगुलमें फंसकर जधन्य-से-जघन्य कुकृत्योके करनेमे सकुचित नही होता। उसकी तीव्र वासना एव स्वार्थलोलुपता उसके सच्चे स्वरूपपर कुठाराघात करती है। इतना ही नही, उसे महान दुखोंके गर्तमें पटक देती है। अत कहना होगा कि यह इन्द्रियासयम अपर नाम वासना अनन्त ससारका कारण है। इस लिये यदि हम अपने जीवनको सुखी एव शान्तिमय बनाना चाहते है, तो हमारा कर्तव्य है कि इस विपय-पिशाची वासनाका मूलोच्छेद करें। यह निश्चित है कि विपय नियत समयके लिये ही प्राप्त -१३ -
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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