SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्तनमें काल निमित्त कारण होने मात्रसे वर्तयिता-वर्तनकर्ता (वर्ताने वाला) कहा है । तात्पर्य यह कि जिस प्रकार ‘पढ़ाना' वस्तुत उपाध्यायनिष्ठ ही है किन्तु निमित्त रूपसे कारीप-अग्निनिष्ठ भी माना जाता है उसी प्रकार वर्तना वस्तुत समस्त द्रव्यपर्यायगत ही है फिर भी निमित्त होनेसे वर्तनाको कालगत भी मान लिया गया है । अत वर्तनाका अर्थ मुख्यत 'द्रव्यवर्तना' है और उपचारत 'द्रव्योंको वर्ताना' है । सीधी द्रव्यवर्तनाका व्यवच्छेद करके एकमात्र 'द्रव्योको वर्ताना' वर्तनाका अर्थ नहीं है । अन्यथा सर्वार्थ सिद्धिकार 'वर्तते द्रव्यपर्याय' इतने वाक्याशको न लिखकर केवल "द्रव्यपर्यायस्य वर्तयिता काल' इतना ही लिखते । इससे स्पष्ट है कि सत्परिणमनको जो हमने वर्तना कहा है वह मूलकार एव सिद्धान्तकारोंके विरुद्ध नही है और न गलत है। अन्तमें जो एक बात रह जाती है वह यह कि सत्परिणमनको वर्तना माननेपर कालके अस्तित्वका समर्थक कोई दूसरा हेतु नही मिल सकता, उस सम्बन्धमें मेरा कहना है कि सत्परिणमनको वर्तना माननेपर कालके अस्तित्वकी साधक वह क्यो नही रहेगी। दूसरे द्रव्य तो उस सत्परिणमनरूप वर्तनामें उपादान ही होगे, निमित्तकारणरूपसे, जो प्रत्येक कार्यमें अवश्य अपेक्षित होता है, कालकी अपेक्षा होगी और इस तरह वर्तनाके द्वारा निमित्त कारणरूपसे कालकी सिद्धि होती ही है । ( यदि इस रूपमें वर्तनाका अर्थ वर्ताना इष्ट हो तो उसमें हमें कोई आपत्ति नही है। सत्परिणमन भी वहाँ वर्ताना रूप ही हो सकता है। यहां ध्यातव्य है कि पूज्यपाद और अकलङदेवके अभिप्रायसे वर्तना कालका असाधारण गुण और विद्यानन्दके अभिप्रायानुसार पर्याय माना गया है। - १२ -
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy