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________________ | तिसिदं बुभुक्खिदं वा दुहिद दट्ठूण जो हु दुहिदमणो । पडिवज्जदि तं किवया तस्सेसा होदि अणुकपा ॥ कोधो व जदा माणो माया लोभो व चित्तमासेज्ज । 'जीवस्स कुर्णादि खोह कलुसो त्ति य त बुधा वैति ॥ अब इन्ही कुन्दकुन्दके समयसारको लीजिये । उसमें पुण्य और पापको लेकर एक स्वतंत्र ही अधिकार हैं, जिसका नाम 'पुण्यपापाधिकार' है । इसमें कर्मके दो भेद करके कहा गया है कि शुभकर्म सुशील (पुण्य) _शुभकर्मशील है-- पाप है, ऐसा जगत् समझता है । परन्तु विचारनेकी बात है कि शुभकर्म भी ● तरह जीवको ससारमें प्रवेश कराता है तब उसे 'सुशील' कैसे माना जाय ? अर्थात दोनो ही पुद्गलके परिणाम होनेसे तथा ससार के कारण होनेसे उनमें कोई अन्तर नही है । देखो, जैसे लोहेकी वेडी पुरुषको बाँधती है उसी तरह सोनेकी बेडी भी पुरुषको बाँधती है। इसी प्रकार शुभ परिणामोसे किया गया शुभ और अशुभ परिणामोसे किया गया अशुभ कर्म दोनो 'जीवको बांधते है । अत: उनमें भेद नही है । जैसे कोई पुरुष निन्दित स्वभाववाले ( दुश्चरित्र) व्यक्तिको जानकर उसके साथ न उठता बैठता है और न उससे मंत्री करता है । उसी तरह ज्ञानी ( सम्यग्दृष्टि ) जीव कर्मप्रकृतियोके शीलस्वभावको कुत्सित ( बुरा) _जानकर उन्हें छोड़ देते हैं और उनके साथ ससर्ग नही करते । केवल अपने ज्ञायक स्वभावमें लीन रहते हैं। चाहे प्रस्त हो, चाहे अप्रशस्त, दोनोसे ही जीव कर्मको बाँधता है तथा दोनो प्रकारके रागोसे रहित ही जीव उस कर्मसे छुटकारा पाता । इतना ही जिन भगवान्‌ के उपदेशका सार इसलिए न शुभकम में रक्त होओ और न अशुभकर्ममे । यथार्थ में पुण्यकी वे ही इच्छा करते हैं जो आत्मस्वरूप के अनुभवसे च्युत हैं और केवल अशुभकर्मको अज्ञानतासे बन्धका कारण मानते है तथा व्रत, नियमादि शुभकर्मको बन्धका कारण न जानकर उसे मोक्षका कारण समझते हैं । इस सन्दर्भ में इस ग्रन्थके उक्त अधिकारकी निम्न गाथाएँ भी द्रष्टव्य हैं 1 कम्ममसुह कुसील सुहकम्म चावि जाणह सुसील । कह त होदि सुसील ज ससार पवेसेदि || १४५|| सोवण्णिय पिनियल बंधदि कालायस पि जह पुरिस । बंधदि एव जीव सुहमसुह वा कद कम्म || १४६ ॥ जह णाम को विपुरिसो कुच्छियसील जण वियाणित्ता । वज्जेदि तेण समय ससग्ग एमेव कम्मपयडीसीलसहाव च वज्जति परिहरति य तस्स सग्ग रत्तो बधदि कम्म मुचदि जीवो एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु वद-णियमाणि धरता सीलाणि तहा परमट्ठबाहिरा जे णिव्वाण ते परमट्ठबाहिरा जे अण्णाणेण सारगमण वि मोक्ख पचत्थियसगह, गा० १३५, १३६, १३७, १३८ । समयसार, पुण्यपापाधिकार । रायकरण च ॥ १४८ ॥ कुच्छिद गाउं । सहावरया ॥ १४९ ॥ विरागसपत्तो । मा रज्ज ॥ १५० ॥ तव च कुव्वता । ण विदंति ॥ १५३॥ पुण्णमिच्छति । अजाणता ॥ १५४ ॥
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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