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________________ 'मागे इसी ग्रन्थमें पुण्य और पापका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है कि जीवका शुभ परिणाम पुण्य पदार्थ है और अशुभ परिणाम पाप पदार्थ है । तथा इन दोनों शुभाशुभ परिणामोका निमित्त पाकर पुद्गलका परिणाम क्रमश. शुभ कर्म और अशुभ कर्मरूप अवस्थाको प्राप्त होता है। तात्पर्य यह कि जीवका शुभ परिणाम भावपुण्य और उसके निमित्तसे होने वाला पुद्गलका शुभकर्मस्प परिणाम द्रव्यपुण्य है। तथा जीवका अशुभ परिणाम भावपाप और उसके निमित्तसे होने वाला पुद्गलका अशुभकर्मरूप परिणाम द्रव्यपाप है। यथा सुहपरिणामो पुण्ण असुहो पावति हवदि जीवस्स । दोण्ह पोग्गलमेत्तो भावो कम्मत्तण पत्तो। यहाँ मा० अमृतचन्द्र और आ० जयसेनकी टीकायें द्रष्टव्य है। उन्होंने विषयका अच्छा स्पष्टीकरण किया है । स्मरण रहे कि शुभाशुभ परिणाम (भावपुण्य-भावपाप) का कर्ता तो जीव है और उनके निमित्तसे होनेवाले पुद्गलकर्मरूप परिणाम (द्रव्यपुण्य-द्रव्यपाप) का कर्ता पुद्गल है। तात्पर्य यह है कि जीव और पुद्गल ये दोनो अपने-अपने परिणामके उपादान हैं और एक-दूसरा एक-दूसरेके प्रति निमित्त है । पुण्यका आस्रव इतनी सामान्य चर्चा के बाद अब हम केवल पुण्यके मास्रवके सवधर्म प्रकाश डालनेका प्रयास करेंगे। पुण्य क्या है, यह समझ लेनेके उपरान्त अब प्रश्न है कि पुण्यका आस्रव कैसे होता है ? इसका समाधान ' करते हुए इसी पचत्थियसगहमें आचार्यने बडी विशदतासे कहा है कि जिसके प्रशस्त राग है, अनुकम्पारूप । परिणाम है और चित्तमें कालुष्य नहीं है उसी जीवके पुण्यका आस्रव होता है। अरहन्त, सिद्ध और साधु इनकी भक्ति, व्यवहारचारित्ररूप धर्मानुष्ठानमें चेष्टा (प्रवृत्ति) और गुरुजनोका अनुगमन (विनय) प्रशस्त राग है । यह राग स्थूल लक्ष्य होनेके कारण केवल भक्तिप्रधान अज्ञानीके होता है अथवा अनुचित राग या तीव्र राग न होने पाये, इस हेतु वह कभी ज्ञानीके भी होता है । यथार्थमें सूक्ष्मलक्ष्यी सम्यग्दृष्टि ज्ञानीको यह राग नही होता। प्याससे भाकुलित, भूखसे पीडित अथवा इष्टवियोगादिजन्य दु खसे दुःखित प्राणीको देखकर जो स्वय दुखी होता हुमा दयाभावसे उसके दुखको दूर करनेकी इच्छासे आकुलित है उसके इस प्रकारके भावको अनुकम्पा कहते हैं । यह अज्ञानीके होती है। ज्ञानीके तो नीचेको भूमिकामें रहते हुए जन्मोदधिमें डूबे जगत्को देखकर ईषत् खिन्नता होती है । जब क्रोध, मान, माया और लोभका तीव्रोदय होता है तब चित्तमें क्षोभ पैदा होता है और इसीको कालुष्य कहते हैं । परन्तु जब उन्ही क्रोवादिका मन्दोदय होता है तव चित्तमें क्षोभ नही आता, ऐसे भावको अकालुष्य कहा गया है । यह कभी विशिष्ट कषायका क्षयोपशम होनेपर अज्ञानीके भी होता है और कषायका उदय रहते हुए और उपयोगके पूर्ण निर्मल न होते हुए ज्ञानीके भी कदाचित् होता है । यह सब निम्न गाथामोंसे स्पष्ट है रागो जस्स पसत्थो अणुकपाससिदो य परिणामो। चित्ते पत्थि कलुस्स पुण्ण जीवस्स आसवदि । अरहत-सिद्ध-साहुसु भत्तो धम्मम्मि जा य खलु चेट्ठा । । अणुगमण पि गुरूण पसत्थरागो ति वुच्चति ।। १. पचत्थियसगह, गा० १३२ ।
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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