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________________ नही है । पास्यत हो जायें, तो वह उनका । परन्तु जब देखता है कि विक्रमकी दूसरी-तीसरी शताब्दीके विद्वान् स्वामी समन्तभद्रको मान्यतानुसार जीवनमें आचरित तपोका फल वस्तुत अन्त समयमे गृहीत सल्लेखना ही है। अत वे उसे पूरी शक्तिके साथ धारण करनेपर जोर देते है।) आचार्य पूज्यपाद-देवनन्दि भी सल्लेखनाके महत्त्व और आवश्यकताको बतलाते हुए लिखते हैं। कि 'मरण किसीको इष्ट नहीं है । जैसे अनेक प्रकारके सोना-चांदी, बहुमूल्य वस्त्रो आदिका व्यवसाय करनेवाले किसी व्यापारीको अपने उस घरका विनाश कभी इण्ट नही है, जिसमें उक्त बहुमूल्य वस्तुएँ रखी हुई हैं। यदि कदाचित् उसके विनाशका कारण (अग्निका लगना, वाढ आजाना या राज्यमें विप्लव होना आदि) उपस्थित हो जाय, तो वह उसकी रक्षाका पूरा उपाय करता है और जब रक्षाका उपाय सफल होता हुआ दिखाई नहीं देता, तो घरमे रखे हुए बहुमूल्य पदार्थोको बचानेका भरसक प्रयत्न करता है. और घरको नष्ट होने देता है। उसी तरह व्रत-शीलादि गुणोका अर्जन करनेवाला व्रती श्रावक या साघु भी उन व्रतादिगुणरत्नोके आधारभूत शरीरकी, पोपक आहार-औपधादि द्वारा, रक्षा करता है, उसका नाश उसे इष्ट नहीं है । पर दैववश शरीरमें उसके विनाश-कारण (असाध्य रोगादि) उपस्थित हो जाये, तो वह उनको दूर करनेका यथासाध्य प्रयत्न करता है । परन्तु जब देखता है कि उनका दूर करना अशक्य है और शरीरकी रक्षा अव सम्भव नही है, तो उन बहुमूल्य व्रत-शीलादि आत्म-गुणोकी वह सल्लेखना-द्वारा रक्षा करता है और शरीरको नष्ट होने देता है।' इन उल्लेखोंसे सल्लेखनाकी उपयोगिता, आवश्यकता और महत्ता सहजमें जानी जा सकती है। ज्ञात होता है कि इसी कारण जैन-सस्कृतिमें सल्लेखनापर बडा बल दिया गया है। जैन लेखकोने अकेले इसी विषयपर प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी आदि भाषाओमें अनेको स्वतत्र ग्रन्थ लिखे हैं । आचार्य शिवार्यकी 'भगवती आराधना' इस विषयका एक अत्यन्त प्राचीन और महत्वपूर्ण विशाल प्राकृत-ग्रन्थ है । इसी प्रकार 'मृत्युमहोत्सव', 'समाधिमरणोत्साहदीपक', 'समाधिमरणपाठ' आदि नामोंसे सस्कृत तथा हिन्दीमें भी इसी विषयपर अनेक कृतियां उपलब्ध हैं ।। सल्लेखनाका काल, प्रयोजन और विधि यद्यपि ऊपरके विवेचनसे सल्लेखनाका काल और प्रयोजन ज्ञात हो जाता है तथापि उसे यहाँ और भी अधिक स्पष्ट किया जाता है । आचार्य समन्तभद्रस्वामीने सल्लेखना-धारणका काल (स्थिति) और उसका प्रयोजन बतलाते हुए लिखा है उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजाया च निप्रतीकारे। धर्माय तनुविमोचनमाहु सल्लेखनामार्या ॥-रत्नकरण्डश्रावका० ५-१। सम्भव नहीं है, ८-१ अन्त क्रियाधिकरण तप फल सकलदर्शिन स्तुवते । तस्माद्यावद्विभव समाधिमरणे प्रयतितव्यम् ।।-रत्नकरण्डश्रा० ५-२ । 'मरणस्यानिष्टत्वात् । यथा वणिजो विविधपण्यदानादानसचयपरस्य स्वगृहविनाशोऽनिष्ट । तद्विनाशकारणे च कृतश्चिदुपस्थिते यथाशक्ति परिहरति । दुष्परिहारे च पण्यविनाशो यथा न भवति तथा यतते । एव गृहस्थोऽपि व्रतशीलपण्यसचये प्रवर्तमानस्तदाश्रयस्य न पातमभिवाञ्छति । तदुपप्लववकारणे चोपस्थिते स्वगुणाविरोधेन परिहरति । दृष्परिहारे च यथा स्वगुणविनाशो न भवति तथा प्रयतते ।' -सर्वार्थसि०७-२२।
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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