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________________ लिखते हैं कि 'सल्लेखना-धारक (क्षपक) का भक्तिपूर्वक दर्शन, वन्दन और वैयावृत्य आदि करनेवाला व्यक्ति भी देवगतिके सुखोको भोगकर अन्तमे उत्तम स्थान (निर्वाण) को प्राप्त करता है।' ) तेरहवी शताब्दीके प्रौढ लेखक पण्डितप्रवर आशाधरजीने भी इसी बातको बडे ही प्राज़ल शब्दोमें " स्पष्ट करते हुए कहा है कि 'स्वस्थ शरीर पथ्य आहार और विहार द्वारा पोषण करने योग्य है तथा रुग्ण शरीर योग्य औषधियो द्वारा उपचारके योग्य है। परन्तु योग्य आहार-विहार और औषधोपचार करते हुए भी शरीरपर उनका अनुकूल असर न हो, प्रत्युत रोग बढता ही जाय, तो।' ऐसी स्थितिमे उस शरीरको दुष्टके समान छोड देना ही श्रेयस्कर है ।' (असावधानी एव आत्मघातके दोपसे बचनेके लिए कुछ ऐसी बातोकी ओर भी सकेत करते हैं, जिनके द्वारा शीघ्र और अवश्य मरणकी सूचना मिल जाती है। उस हालतमें व्रतीको आत्मधर्मको रक्षाके लिए सल्लेखनामे लीन हो जाना - ही सर्वोत्तम है।) ( इसी तरह एक अन्य विद्वान्ने भी प्रतिपादन किया है कि 'जिस शरीरका बल प्रतिदिन क्षीण हो रहा है, भोजन उत्तरोत्तर घट रहा है और रोगादिकके प्रतीकार करनेकी शक्ति नही रही है वह शरीर ही विवेकी पुरुषोको यथाख्यातचारित्र (सल्लेखना) के समयको इगित करता है। मृत्युमहोत्सवकारकी दृष्टिमें समस्त श्रुताभ्यास, घोर तपश्चरण और कठोर व्रताचरणकी सार्थकता तभी है जब मुमुक्षु श्रावक अथवा साधु विवेक जागृत हो जानेपर सल्लेखनापूर्वक शरीर त्याग करता है । वे लिखते हैं : 'जो फल बडे-बडे व्रती पुरुषोको कायक्लेशादि तप, अहिंसादि व्रत धारण करनेपर प्राप्त होता है वह फल अन्त समयमें सावधानीपूर्वक किये गये समाधिमरणसे जीवोको सहज में प्राप्त हो। जाता है। अर्थात् जो आत्म-विशुद्धि अनेक प्रकारके तपादिसे होती है वह अन्त समयमें समाधिपूर्वक शरीर-त्यागसे प्राप्त हो जाती है।' 'बहुत कालतक किये गये उग्र तपोका, पाले हुए व्रतोका और निरन्तर अभ्यास किये हुए शास्त्र ज्ञानका एक-मात्र फल शान्तिके साथ आत्मानुभव करते हुए समाधिपूर्वक मरण करना है।' ६ 'सल्लेहणाए मूल जो वच्चइ तिश्व-भत्ति-राएण । भोत्तण य देव-सुख सो पावदि उत्तम ठाण ||-भगवती आरा० । 'काय स्वस्थोऽनुवर्त्य स्यात्प्रतिकार्यश्च रोगित । उपकार विपर्यस्यस्त्याज्य सदिभ खलो यथा ॥' -आशाधर, सागरधर्मा०८-६ । 'देहादिवकृत सम्यक्निमित्तैस्तु सुनिश्चिते । मृत्यावाराधनामग्नमतेर्दूरे न तत्पदम् ।।-सागारधर्मा०, ८-१० । प्रतिदिवस विजहदबलमज्झद्भक्ति त्यजत्प्रतीकारम् । वपुरेव नणा निगदति चरमचरित्रोदय समयम् ||-आदर्श सल्ले०, पृ० १९ । यत्फल प्राप्यते सद्भिर्वतायासविडम्बनात् । तत्फल सुखसाध्य स्यान्मृत्युकाले समाधिना ।। तप्तस्य तपसश्चापि पालितस्य व्रतस्य च । पठितस्य श्रुतस्यापि फल मृत्यु समाधिना ।।-मृत्युमहोत्सव, श्लोक २१, २३ । -८५
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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