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________________ दर्शन, जीवन और जगन् ४७ उत्पत्ति में वहत मे मे कारण हैं जिनकी उपस्थिति में हमें पदार्थ अपने श्राप में क्या है अर्थात् पदार्थ का अपना वास्तविक स्वरूप क्या है, इसका जान नहीं हो सकता । मान लीजिए, में एक घट का ज्ञान कर रहा हैं। मेरा यह घटनान किस प्रकार का होगा? इस घटज्ञान में समय अवश्य रहेगा, क्योंकि मैं किसी-न-किमी समय में ही घट का अनुभव कर मयता है । इसके अतिरिक्त इनमें स्थान का हिस्सा भी रहेगा ही, क्योंकि मेरा यह घटज्ञान किसी न किसी जगह पर पड़े हुए घट के विपय में ही होगा। इन दोनों कारणों के अतिरिक्त में उस घट को अस्ति या नास्ति अर्थात् है या नहीं है अथवा कार्य या कारण या अन्य किसी रूप में ही जान गा, अथवा इन सब रूपों में जानगा। कहने का तात्पर्य यह है कि मेरा घटज्ञान काल, आकाग और विचार की किसी न किसी श्रेणी या वर्ग का उल्लंघन नहीं कर सकता। कान्ट ज्ञान की उत्पत्ति में तीन प्रकार की अवस्थाओं की सीमा स्वीकृत करता है । ज्ञान किसी न किसी कान में उत्पन्न होता है, किसी न किसी श्राकाग-स्थान से सम्बन्ध रखता घोर बारह विचार-कोटियों ('Twelve Categories of Thought) में से किसी न किसी विनार-कोटि का प्राश्रय लेता है । प्राकागार काल को वा अन्तरपि (Intuition) के दो अवएड रूप मानता है। बम विवेचन को समझ लेने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारा जान गंगा , ? हम किनी भी पदार्थ को उसी रूप में जानते है, जिन रूप में कि हमें उगका उपरोक्त ब्धिति में ज्ञान होता है। दूसरे शब्दों में ना जाच तो हमारे कान में काल की मर्यादा है, याकाग की मर्यादा धार माय-ही-साथ विचार की भी मर्यादा है। हमें इन मद मर्यादात्रों ६. नीम पवार्य जया किमाई देता है, हम उसे उनी रूप में जानते हैं। मला में पदार्थ जमा है अर्थात काल. याकाम और विचार की भीमानों से परे गया क्या कए है. इनका ज्ञान हमें नहीं हो भरता। महाजगन नामान कर मरते है किन्तु पारमाधिकागाजविरः जगन का मान बरना हमारे अधिकार में बाहर । जन जिन कप में हमारे सामने प्रनिनामित होना । उन ग मे सान मारने है, अपने अमली कार में नहीं। एन मा दबाट जगह मा हारजगत् ( Plhene.
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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