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________________ ४२ जैन-दगंन वह विचार या तर्क के माध्यम द्वारा अपने आपको प्रकट करता है। दूसरे शब्दों में विचार या तर्क से असम्बद्ध या स्वतन्त्र तत्त्व की प्रतीति हमारे लिए सर्वथा असम्भव है। हमें जो कुछ प्रतीत होता है, अपनी विचारशक्ति या तर्कवल के आधार पर ही । प्रतीति के इस माध्यम को छोड़कर हमारे पास ऐसा कोई साधन नहीं है, जो तत्त्वज्ञान में सहायक सिद्ध हो सके। हमारा विचार या हमारा युक्तिबल जिस प्रकार का तत्त्वज्ञान कराता है, हमें उसी प्रकार का तत्त्वज्ञान होता है । आदर्शवाद की इस व्याख्या के अनुसार मानव-बुद्धि (Human mind) ही एक ऐसा साधन है, जिसे आधार बना कर तत्त्व अपने को अभिव्यक्त करता है । कुछ मिथ्या धारणाएँ : कई लोगों का यह विश्वास है कि आदर्शवाद एक ऐसा सिद्धान्त है, जो छिपे या खुले तौर से यह सिद्ध करना चाहता है कि विश्व की यह सम्पूर्ण रचना झूठी है-~-पृथ्वी, पाताल और स्वर्ग · का यह पूरा प्रदेश मिथ्या है। वास्तव में वात ऐसी नहीं है । यह ठीक है कि विश्व अपने वास्तविक रूप में वैसा नहीं है जैसा कि दिखाई देता है । किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि वह बिल्कुल झूठा है--सर्वथा मिथ्या है । आदर्शवाद की दृष्टि में उसका वास्तविक रूप कुछ और ही है। वह विश्व को विज्ञान या साधारण बुद्धि की धारणा तक ही सीमित नहीं करता, अपितु उसे इन सीमाओं से थोड़ा आगे ले जाता है। ___ कुछ लोग बर्कले जैसे अधूरे आदर्शवादियों को आदर्शवाद का आदर्श समझकर आदर्शवाद पर यह आरोप लगाने के लिए उतारू हो जाते हैं कि आदर्शवाद यह मानता है कि हमारा दर्शन .(Perception) ही बाह्य पदार्थों की उत्पत्ति का कारण है। बर्कले की यह धारणा कि दर्शन ही सत् है अथवा सत्ता का अर्थ दर्शन के अतिरिक्त और कुछ नहीं है, ' ठीक नहीं है । वह तत्त्व या सत्ता को १. Esse est percipi. . . ....
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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