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________________ . ४१ दगंन, जीवन और जगत् Object of Thought) में कोई भेद नहीं है । जान को छोड़कर जय कोई भिन्न पदार्थ नहीं है। ज्ञान और ज्ञेय वास्तव में एक ही हैं । प्लेटो ने आध्यात्मिक तत्त्व की सत्ता पर जोर दिया, किन्तु पूर्ण रूप से प्रादर्शवादी न बन सका । एरिस्टोटल तो यथार्थवादी था ही। चौदहवीं शताब्दी में निकोलन को यादर्शवाद की थोड़ी-सी झलक मिली, किन्तु वह वहीं शान्त हो गई। प्रादर्शवाद और यथार्थवाद का जो रूप अाज हमारे सामने है उसका वीज डेकार्ट की विचारधारा में मिलता है। डेकार्ट ने विस्तार (Extension) और विचार (Thought) के भेद से भौतिक तत्त्व और आध्यात्मिक तत्त्व में भेद डाला । वह यथार्थवादी था किन्तु उसके बाद धीरे-धीरे आदर्शवाद का जोर बढ़ता गया। श्रादर्शवाद का दृष्टिकोण : कुछ लोग यह समझते हैं कि आदर्शवाद वह सिद्धान्त है, जो स्पष्ट रूप से दिखाई देने वाले जगत् को यथार्थ न समझ कर उसके मूल्यांकन या स्वरूप-निर्णय में कुछ कमी कर देता है । जगत् का स्वरूप जैमा दिखाई देता है, वैसा नहीं है, किन्तु अलग ही प्रकार का है, जो दृश्यमान जगत् से थोड़ी कमी लिए हुए है-अर्थात् बहुत सी ऐसी बातें हमें इस जगत् में दिखाई देती हैं, जो वस्तुतः जगत् में नहीं हैं। कुछ दार्शनिकों का यह मत है कि 'आदर्शवाद' पद का प्रयोग, उन नव दरनियास्मों के लिए किया गया है, जो यह मानते हैं कि विश्व की व्यवस्था के निर्माण में प्राध्यात्मिक तत्त्व का प्रमुख हाथ है। उनकी धारणा के अनुसार प्रकृति का अवलम्बन या प्राधार यात्मतत्त्व है।' ऐसी अवस्था में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि श्रादर्शवाद का वास्तविक स्वरूप क्या है ? 'अादर्शवाद' पद से हमें गया बोध होना चाहिए ? श्रादर्गवाद वह नितान्त या विश्वास है जिसके अनुसार विचार-क्ति (Thought) या तर्क (Reason) तत्व की अभिव्यक्ति का माध्यम है अर्थात् तत्त्व का यही स्वभाव है कि & Prolegomena to an Idealistic Theory of Knowledge. ५० १. ... ... ........................
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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