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________________ धर्म, मो. विज्ञान भी दृष्टि में जगन को तीन भागों में बांट रखा है-मोनिक (Physical), प्राग-मम्बन्धी (Biological) और मानसिक (fental) | इन नीनों भायात्रों का ज्ञान ही प्राज के विज्ञान का पूर्ण जान , नान पूर्ण होने हा भी दृश्य जगन तक ही मोमित होता है, धनः पिच का मम्पूरगं और नन्ला जान नहीं कह सकते । विष्य प्राय और गूट सिद्धान्त विज्ञान की दृष्टि में प्रोमल रहते ., अन: न सिद्धान्तों ने प्रभाव में विज्ञान का ज्ञान पारमार्थिक दृष्टि म पुगां नहीं पाया जा सकता। व्यावहारिक मत्य की दृष्टि में भले ही मग विमानको पूर्ण व मांगी कह सरने हैं, किन्न अन्तिम मत्य की टिगा काना ठीक नहीं। इस प्रकार बजानिक दृष्टिकोगा मेसा अपूर्ण व पलांगी होता है और मीलिए दागंनिक जान, जो गि बनर्वागी होता.. उनकी तुलना में वह मंकुचित मालूम । पगेन विवेचन के प्राधार पर हमें यह नहीं सोचना चाहिए जन प्रोविज्ञान का गायन क्षेत्रही भिन्न है। जिन प्रकार इन योगी का क्षेत्र भिरजनी प्रकार की विधि भी भिन्न है । विज्ञान मंगा धानुनविण (Empirical) एवं व्याप्निमूलन (Indu. ki ली। उनका धाया मेगा बाहा अनुभव होता है, जो बलोकन पर प्रयोग पर गया होता है । दर्शन की विधि का पाया गरनुमान नहीं होता. अपित युति और अनुभव अनि, घोर अनुभव से मम्मिलित प्रयत्न से प्राप्त FFERTIोगन की मिया का निर्माण करता है। मकान माम विरोध होने पर दान अनुभव farबार मना दिन्न नका त्याग मो. नरमा विमान भी विपिन दिपीत होती है। मनर टोनिन नही करना माना। ? मला मियानुभव को ही मन पद न की विधि का पावन पनामद
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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