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________________ जैन-दर्शन अपना प्रभुत्व रखती हैं। कभी-कभी दर्शन इस प्रकार की मान्यताओं का खण्डन करने का प्रयत्न करता है तो धर्म के साथ उसका विरोध हो जाता है और उस विषय में वह उसकी बात मानने के लिये तैयार नहीं होता। परिणाम स्वरूप धर्म और दर्शन समयसमय पर टकराते भी रहते हैं। उस टक्कर में कभी धर्म की हार होती है तो कभी दर्शन की । धर्म और दर्शन का यह संघर्ष हमेशा से चलता आया है। इस ढंग से हम इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि धर्म और दर्शन में मौलिक एकता होते हुए भी दोनों के साधनों में अन्तर है । दोनों का विषय एक होते हुए भी वहाँ तक पहुँचने की पद्धति व मार्ग में अन्तर है । मानव-जीवन की दो मुख्य शक्तियों-श्रद्धा और तर्क में से एक का आधार श्रद्धा है और दूसरे का आधार तर्क है । एक का आधार विचारशक्ति है और दूसरे का आधार भावुकता है । एक का आधार स्थिरता है और दूसरे का आधार गति है। धर्म हमेशा श्रद्धा, भावुकता व स्थिरता का आश्रय लेता है। दर्शन का आश्रय तर्क, विचारशक्ति व गति है । दर्शन और विज्ञान : दर्शन और विज्ञान दो भिन्न क्षेत्रों में कार्य करते हैं। दर्शन विश्व को एक सम्पूर्ण तत्त्व समझ कर उसका ज्ञान कराता है और विज्ञान दृश्य जगत् के विभिन्न अंगों का अलग-अलग अध्ययन करता है । इस प्रकार दर्शन का क्षेत्र विज्ञान से कई गुना अधिक है। ज्ञान की कोई भी धारा जिसका मानव-मस्तिष्क से सम्बन्ध है, दर्शन के क्षेत्र से बाहर नहीं हो सकती । दर्शन हमेशा ज्ञान की धारा के पीछे रहे हुए अन्तिम तत्त्व को खोजने की कोशिश करता है और उसी के आधार पर उस धारा को स्पष्ट करता है। विज्ञान दृश्य जगत् तक ही सीमित है, अत: उसका कार्य हमेशा पदार्थों का एकत्रीकरण, व्यवस्था और वर्गीकरण ही रहेगा। जो चीजें बाह्य अवलोकन और प्रयोग के आधार पर जैसी सिद्ध होंगी, विज्ञान उन चीजों को उसी रूप में लेता रहेगा। इस ढंग से विज्ञानप्रदत्त ज्ञान हमेशा दृश्य जगत्-विषयक होगा। विज्ञान ने अध्ययन की सुविधा
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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