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________________ जैन-दर्शन दृष्टि । इसी दृष्टि को अंग्रेजी में विजन (Vision) कहते हैं। साधारणतया प्रत्येक व्यक्ति देखता ही है। जिसके आँखें होती हैं वह उनका उपयोग करता ही है। हम यहाँ पर जिस 'दृष्टि' का प्रयोग कर रहे हैं, वह 'दृष्टि' साधारण दृष्टि नहीं है । आँखों से देखना ही हमारी 'दृष्टि' का विषय नहीं है । दर्शन के अर्थ में प्रयुक्त होने वाली दृष्टि का एक विशिष्ट अर्थ होता है । इस दृष्टि का उत्पत्ति स्थान पाखें न होकर बुद्धि है, विवेक है, विचार-शक्ति है, चिन्तन है । साधारण दृष्टि में जहाँ आँखें देखती हैं, दर्शनिक दृष्टि में देखने का काम विचार-शक्ति करती है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो साधारण दृष्टि बाह्य चक्षुत्रों को अपना करण बनाती है और दार्शनिक दृष्टि आन्तरिक चा से काम लेती है । विवेक, विचार और चिन्तन इसी आन्तरिक चक्षु के पर्याय हैं। मनुष्य अपने आसपास अनेक प्रकार की वस्तुएँ देखता है । वह संसार के बीच अपने को अकेला नहीं पाता, अपितु अन्य पदार्थों से घिरा हुआ अनुभव करता है। वह यह समझता है कि मेरा संसार के सब पदार्थों से कोई न कोई सम्बन्ध अवश्य है । किसी न किसी रूप में मैं सारे जगत् से बँधा हुआ हूँ। जिस समय मनुष्य इस सम्बन्ध को समझने का प्रयत्न करता है उस समय उसका विवेक जाग्रत हो जाता है, उसकी बुद्धि अपना कार्य संभाल लेती है, उसकी चिन्तनशक्ति उसकी सेवा में लग जाती है। इसी का नाम दर्शन है। दूसरे शब्दों में दर्शन जीवन और जगत् को समझने का एक प्रयत्न है । दार्शनिक जीवन और जगत् को खण्डशः न देखता हुआ दोनों का अखण्ड अध्ययन करता है । उसकी दृष्टि में जगत् एक अखएड सत्ता होती है जिसका प्रभाव जीवन के प्रत्येक कार्य पर पड़ता है। जीवन और जगत् के इस सम्बन्ध को समझना ही दर्शन है। एक सच्चा दार्शनिक विज्ञानवेत्ता की तरह सत्ता के अमुक रूप या ग्रंश का ही अध्ययन नहीं करता, कवि या कलाकार की भाँति सत्ता के सौन्दर्य अंग का ही विश्लेपण नहीं करता, एक व्यापारी की भाँति केवल लाभ-हानि का ही हिसाब नहीं करता, एक धर्मोपदेशक की तरह केवल परलोक की ही बातें नहीं करता, अपतु सत्ता के सभी धर्मों
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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