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________________ कर्मवाद ३५१ कर्म चारित्र-मोहनीय कहलाता है । दर्शनमोहनीय कर्म के पुनः तीन भेद हैं. सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय । सम्यक्त्वमोहनीय के कर्म-परमाणु (दलिक) शुद्ध होते हैं। यह कर्म स्वच्छ परमाणुओं वाला होने के कारण तत्त्वरुचिरूप सम्यक्त्व में बाधा नहीं पहुँचाता । इसके उदय से आत्मा को स्वाभाविक सम्यक्त्व अर्थात् कर्मनिरक्षेप क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होने पाती । परिणामतः उसे सूक्ष्म पदार्थों के चिन्तन में शंकाएँ हुआ करती हैं । मिथ्यात्व मोहनीय के कर्मपरमाणु अशुद्ध होते हैं । इस कर्म के उदय से प्राणी हित को अहित समझता है तथा अहित को हित । विपरीत बुद्धि के कारण उसे तत्त्व का यथार्थ बोध नहीं होने पाता । मिश्रमोहनीय के कर्मपरमाणु अर्धविशुद्ध होते हैं । इस कर्म के उदय से जीव को न तो तत्त्वरुचि होती है न अतत्त्वरुचि । इसीलिए इसे सम्यमिथ्यात्व मोहनीय भी कहते हैं । यह सम्यक्त्व मोहनीय व मिथ्यात्व मोहनीय का मिश्रित रूप है । मोहनीय के दूसरे मुख्य भेद चारित्र मोहनीय के दो उपभेद हैं : कषाय मोहनीय और नोकषाय मोहनीय । कषाय मोहनीय चार प्रकार का है : क्रोध, मान, माया, और लोभ । क्रोधादि चारों कषाय तीव्रता-मन्दता की दृष्टि से पुन: चार-चार प्रकार के हैं : अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन । इस प्रकार कषाय मोहनीय कर्म के कुल सोलह भेद होते हैं जिनके उदय से प्राणी में क्रोधादि कषाय उत्पन्न होते हैं। अनन्तानुवन्धी क्रोधादि के प्रभाव से जीव अनन्त काल तक संसार में भ्रमण करता है । यह कषाय सम्यक्त्व का घात करता है। अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से देशविरतिरूप श्रावकधर्म की प्राप्ति नहीं होने पाती। प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से सर्वविरतिरूप श्रमणधर्म की प्राप्ति नहीं होने पाती। . संज्वलन कषाय के प्रभाव से श्रमण यथाख्यात चारित्ररूप सर्वविरति प्राप्त नहीं कर सकता । कषायों के साथ जिनका उदय होता है अथवा जो कषायों को उत्तेजित करते हैं उन्हें नोकषाय कहते हैं ।' १-कपायसहवतित्वात् कषायप्रेरणादपि । हास्यादि नवकस्योक्ता, नोकपायकषायता ॥
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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