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________________ ३५० जैन-दर्शन दर्शनावरण कर्म कहलाता है । संसार के समस्त त्रैकालिक पदार्थों का सामान्यावबोध केवलदर्शन कहलाता है । इस प्रकार के दर्शन को आवृत्त करने वाला कर्म केवलदर्शनावरण कर्म कहलाता है । सोये . हुए प्राणी का थोड़ी सी आवाज से जग जाना निद्रा कहलाता है। . जिस कर्म के उदय से इस प्रकार की निद्रा आती है उसका नाम निद्राकर्म है । सोये हुए प्राणी का बड़े जोर से चिल्लाने, हाथ से जोर से हिलाने आदि पर बड़ी कठिनाई से जगना निद्रानिद्रा कहलाता है । तन्निमित्तक कर्म को निद्रानिद्रा कर्म कहते हैं । खड़े-खड़े या बैठेबैठे नींद निकालना प्रचला कहलाता है। तन्निमित्तक कर्म को प्रचलाकर्म कहते हैं । चलते-फिरते नींद लेने का नाम प्रचलाप्रचला है । तन्निमित्तभूत कर्म को प्रचलाप्रचला कर्म कहते हैं। दिन में अथवा रात में सोचे हुए कार्यविशेष को निद्रावस्था में सम्पन्न करने का नाम स्त्यानद्धि है। जिस कर्म के उदय से इस प्रकार की नींद आती है उसे स्त्यानद्धि कर्म कहते हैं। __ वेदनीय कर्म की दो उत्तर प्रकृतियाँ हैं : साता वेदनीय और असाता वेदनीय । जिस कर्म के उदय से प्राणी को अनुकूल विषयों की प्राप्ति से सुख का अनुभव होता है उसे साता वेदनीय कर्म कहते हैं । जिस कर्म के उदय से प्रतिकूल विषयों की प्राप्ति से दुःख का संवेदन होता है उसे असाता वेदनीय कर्म कहते हैं। आत्मा को विषयनिरपेक्ष स्वरूपसुख का अनुभव बिना किसी कर्म के उदय के स्वतः होता है । इस प्रकार का विशुद्ध सुख प्रात्मा का स्वधर्म है। मोहनीय कर्म को मुख्य दो उत्तरप्रकृतियाँ हैं : दर्शन मोहनीय कर्म और चारित्र मोहनीय कर्म । जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा ही समझने का नाम दर्शन है । यह तत्त्वार्थ-श्रद्धानरूप आत्मगुण है ।' इस गुण का घात करने वाला कर्म दर्शनमोहनीय कहलाता है । जिस आचरण विशेष के द्वारा आत्मा अपने यथार्थ स्वरूप को माप्त करता है उसे चारित्र कहते हैं । चारित्र का घात करने वाला १-तत्त्वार्थ श्रद्वानं सम्यग्दर्शनम् ।। --तत्त्वार्थसूत्र, १ २,
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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