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________________ जैन-दर्शन "धारणात् धर्मः' अर्थात् जो धारण किया जाए वह धर्म है। 'धृ' धातु के धारण करने के अर्थ में 'धर्म' शब्द का प्रयोग होता है । जैन परम्परा में वस्तु का स्वभाव धर्म कहा गया है । प्रत्येक वस्तु का किसी न किसी प्रकार का अपना स्वतंत्र स्वभाव होता है । वही स्वभाव उस वस्तु का धर्म माना जाता है । उदाहरण के तौर पर अग्नि का अपना एक विशिष्ट स्वभाव है, जिसे उष्णता कहते हैं । यह उष्णता ही अग्नि का धर्म है। प्रात्मा के अहिंसा, संयम, तप आदि गुणों को भी धर्म का नाम दिया गया है। इनके अतिरिक्त 'धर्म' के और भी अनेक अर्थ होते हैं। उदाहरण के लिए नियम,विधान, परम्परा, व्यवहार, परिपाटी,प्रचलन, आचरण, कर्तव्य, अधिकार, न्याय, सद्गुण, नैतिकता, क्रिया, सत्कर्म आदि अर्थों में धर्म शब्द का प्रयोग होता आया है। जब हम कहते हैं कि वह धर्म में स्थित है तो इसका अर्थ यह होता है कि वह अपना कर्तव्य पूर्ण रूप से निभा रहा है। जब हम यह कहते हैं कि वह धर्म करता है तो हमारा अभिप्राय कर्तव्य से न होकर क्रिया-विशेष से होता है--अमुक प्रकार के कार्य से होता है, जो धर्म के नाम से ही किया जाता है । वौद्ध परम्परा में धर्म का अर्थ वह नियम, विधान या तत्त्व है जिसका बुद्ध प्रवर्तन करते हैं । इसी का नाम 'धर्म-चक्रप्रवर्तन' है । वौद्ध जिन तीन शरणों का विधान करते हैं उनमें धर्म भी एक है। इस प्रकार 'धर्म' शब्द का अनेक . अर्थों में प्रयोग हुआ है। भिन्न-भिन्न परम्पराएं अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार विविध स्थानों पर 'धर्म' शब्द के विविध अर्थ करती हैं। ऐसी कोई व्याख्या नहीं है, जिसे सभी स्वीकृत करते हों । ऐसा कोई लक्षण नहीं है, जो सर्व-सम्मत हो । १. बत्युमहावो चम्मो २. धम्मो मंगलमुक्चिट्ट अहिंस संजमो तवो। ३. - Sanskrit - English Dictionary ( Monier Williams) ४. धम्म सरणं गच्छामि, बुद्ध सरणं गच्छामि, संघ सरणं गच्छामि ।
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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