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________________ धर्म, दर्शन और विज्ञान होती है । हेगल पीर स्लरमाकर की मृत्यु के कुछ ही समय उपरान्त धर्म की उत्पनि का प्रपन डार्विन के विकानवाद के हाथ में चला गया । यह परिवर्तन दर्शन और विनान की परम्परा के बीच एक गम्भीर संघपं था। धर्म की उत्पत्ति का प्रश्न, जो अब तक दार्गनिकों के हाथ में था, अकस्मात् विज्ञान के हाथ में आ गया। विज्ञान की शाखा मानव-विज्ञान (Anthropology') अपनी विकासवाद की धारणा के अाधार पर धर्म की उत्पत्ति का अध्ययन करने लगा। इस मान्यता के अनुसार आध्यात्मिक श्रद्धा ही धर्म की उत्पत्ति का मुल्य अाधार मानी गई । इस प्रकार धर्म की उत्पत्ति के मुख्य प्रश्न को लेकर विभिन्न धारणाओं ने विभिन्न विचार-धारानों का समर्थन किया। इन सब विचार-धागयों का विश्लेपण करने से यह प्रतीत होता है कि धर्म की उत्पत्ति का प्रधान कारण न तो प्राकृतिक कार्यों की विचिअता है. न पादचर्य है और न ग्रागा ही है अपितु मानव की असहाय अवस्था है. जिनमें एक प्रकार के भय का मिश्रण रहा हुआ है। इमी अवस्था से छुटकारा पाने के लिए मनुष्य एक प्रकार की श्रद्धापूर्ग भावना का निर्माण करता है । वही भावना धर्म का रूप धारगा करती है। भारतीय परम्परा में धर्म की उत्पत्ति का प्रधान कारण दुःर माना गया है । मनुष्य नांमारिक दाम से मुक्ति पाने की प्राशा. में एक श्रद्धापूर्गा मार्ग का अवलम्बन लेना है । यही मार्ग धर्म का माघारमा करता है। जिसे पालाल परम्पन मं अमहायावस्था कहा गया है, वही भारतीय परम्परा में ब-मुक्ति की अभिलाषा है। धनग ने दोनों परम्परात्रों में बहुत नाम्ब है । धर्म पानर्थ : धर्म की उत्पनिने सम्बन्ध लाने वाली विभिन्न धावत्रों का मापन करने के बाद जानना यादव को जाता है कि धर्म का बाई नया: '' सदराबी-टीका अर्थ नरोगी पनि बिपक मान्यता स्पष्ट रूप से ममम में नही या नमकी। गर्म का तालिमलमा प्रर्य है.
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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