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________________ ३०२ जैन-दर्शन २-त्रिप्रदेशी स्कन्ध स्यात् प्रात्मा नहीं है। . ३-त्रिप्रदेशी स्कन्ध त्यात प्रवक्तव्य है। ४-त्रिप्रदेशी स्कन्ध स्यात् अात्मा है और प्रात्मा नहीं है । ५-त्रिप्रदेशी स्कन्ध स्यात् आत्मा है और (दो) अात्माएं नहीं हैं। ६-त्रिप्रदेशी स्कन्ध स्यात् (दो) आत्माएँ हैं और आत्मा नहीं है। ७-त्रिप्रदेशी स्कन्ध स्यात् आत्मा है और प्रवक्तव्य है। ८-त्रिप्रदेशी स्कन्ध स्यात् आत्मा है और (दो) अात्माएँ अवक्तव्य हैं। ६-त्रिप्रदेशी स्कन्ध स्यात् (दो) अात्माएँ हैं और प्रवक्तव्य है। १०-त्रिप्रदेशी स्कन्ध स्यात् आत्मा नहीं है और प्रवक्तव्य है। ११-त्रिप्रदेशी स्कन्ध स्यात् आत्मा नहीं है और (दो) अवक्तव्य हैं। १२--त्रिप्रदेशी स्कन्ध स्यात् (दो) आत्माएँ नहीं हैं और अवक्तव्य है। १३-त्रिप्रदेशी स्कन्ध स्याद् आत्मा है, आत्मा नहीं है और प्रवक्तव्य है। ऐसा क्यों? १--त्रिप्रदेशी स्कन्ध अात्मा के आदेश से आत्मा है । २--त्रिप्रदेशी स्कन्ध पर के आदेश से आत्मा नहीं है । ३--त्रिप्रदेशी स्कन्ध तदुभय के आदेश से प्रवक्तव्य है । ४--एक देश सद्भाव पर्यायों से ग्रादिष्ट है और एक देश असद्भाव पर्यायों से आदिष्ट है, इसलिए त्रिप्रदेशी स्कन्ध आत्मा है और आत्मा नहीं है। ५--एक देश सद्भावपर्यायों से आदिष्ट है और दो देश असद्भाव पर्यायों से आदिष्ट है, अतः त्रिप्रदेशी स्कन्ध आत्मा है और (दो) आत्माएँ नहीं हैं। ६--दो देश सद्भावपर्यायों से आदिष्ट हैं और एक देश
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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