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________________ २६४ जैन-दर्शन प्रयोग का निषेध माना जाय तो कथानकों में जो 'धर्मलाभ' रूप आशीर्वाद का प्रयोग मिलता है वह असंगत सिद्ध होगा। यह हेतु विशेष महत्व नहीं रखता। 'धर्मलाभ' को आशीर्वाद कहना ठीक वैसा ही है, जैसा मुक्ति की अभिलाषा को राग कहना । जो लोग मोक्षावस्था को सुखरूप नहीं मानते हैं, वे सुखरूप मानने वाले दार्शनिकों के सामने यह दोष रखते हैं कि सुख की अभिलाषा तो राग है, और राग बन्धन का कारण है न कि मोक्ष का अतः मोक्ष सुखरूपं नहीं हो सकता । सुख की अभिलाषा को जो राग कहा गया है, वह सांसारिक सुख के लिए है, न कि मोक्षरूप शाश्वत सुख के लिए, इस सिद्धान्त से अपरिचित लोग ही मोक्ष की अभिलाषा को राग कहते हैं । आशीर्वाद भी सांसारिक ऐश्वर्य और सुख की प्राप्ति के लिए होता है। धर्म के लिए कोई आशीर्वाद नहीं होता। वह तो आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग है जिस पर व्यक्ति अपने प्रयत्न से चलता है । 'धर्मलाभ' या 'धर्म की जय' आशीर्वाद नहीं है, सत्य की अभिव्यक्ति है-सत्यपथ का प्रदर्शन है । तात्पर्य यह है कि उपयुक्त हेतु में कोई खास वल नहीं है । व्याकरण के प्रयोगों के अध्ययन के आधार पर सम्भवतः 'न चास्याद्वाद' पद का औचित्य सिद्ध हो सकता है । जो कुछ भी हो, यह तो निर्विवाद सिद्ध है कि 'स्याद्' पूर्वक वचन-प्रयोग आगमों में देखे जाते है । 'स्याद्वाद' ऐसा अखण्ड प्रयोग न भी मिले, तो भी स्याद्वाद सिद्धान्त आगमों में मौजूद है; इसे कोई इनकार नहीं कर सकता । अनेकान्तवाद और स्याद्वाद : ___जैन दर्शन एक वस्तु में अनन्त धर्म मानता है । इन धर्मों में से व्यक्ति अपने इच्छित धर्मों का समय-समय पर कथन करता है । वस्तु के जितने धर्मों का कथन हो सकता है, वे सब धर्म वस्तु के अन्दर रहते हैं। ऐसा नहीं कि व्यक्ति अपनी इच्छा से उन धर्मों का पदार्थ पर आरोप करता है। अनन्त या अनेक धर्मों के कारण ही वस्तु अनन्तधर्मात्मक या अनेकान्तात्मक कही जाती है। अनेकान्तात्मक वस्तु का कथन करने के लिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग करना पड़ता है । 'स्यात्' का अर्थ है कथंचित् । किसी एक
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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