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________________ स्याद्वाद २६३ स्याद्वाद या श्रनेकान्तवाद एक प्रखण्ड दृष्टि है, जिसमें वस्तु के सभी धर्म निर्विरोध रूप से प्रतिभासित होते हैं । श्रागमों में स्याद्वाद : यह विवेचन पढ़ लेने के बाद इसमें तो तनिक भी सन्देह नहीं रहता कि स्यादवाद का वीज जैनागमों में मौजूद है । जगह जगह 'सिय सासया' 'सिय सासया' - स्यात् शाश्वत, स्यात् प्रशाश्वत श्रादि का प्रयोग देखने को मिलता है । इससे यह सिद्ध है कि ग्रागमों में 'स्याद्' शब्द प्रयुक्त हुआ है । यहाँ पर एक प्रश्न है कि क्या ग्रागमों में 'स्यादवाद' इस पूरे पद का प्रयोग हुआ है ? सूत्रकृतांग की एक गाथा में से 'स्यादवाद' ऐसा पद निकालने का प्रयत्न किया गया है । " गाथा इस प्रकार है: --- नो छापए नो विप लूसएज्जा मारणं न सेवेज्ज़ नया विपन्ने परिहास कुज्जा न या सियावाय पगासरणं च । वियागरेज्जा ॥ १, १४, १६ इसका जो 'न या सियावाय' अंश है उसके लिए टीकाकार ने 'न चाशीर्वाद' ऐसा संस्कृत रूप दिया है। जो लोग इस गाथा में से 'स्याद्वाद' पद निकालना चाहते हैं, उनके मतानुसार 'चास्यादवाद' ऐसा रूप होना चाहिए । आचार्य हेमचन्द्र के नियमों के अनुसार 'ग्राशिष्' शब्द का प्राकृत रूप 'श्रासी' होता है । हेमचन्द्र ने 'आसीया' ऐसा एक दूसरा रूप भी दिया है' । 'स्याद्वाद' के लिए प्राकृतरूप 'सियावाग्रो' है ' । इसके लिए एक और हेतु दिया गया है कि यदि इस सियावाग्रो' शब्द पर ध्यान दिया जाय तो उपर्युक्त गाया में अस्यादवाद वचन के प्रयोग का ही निषेध मानना ठीक होगा; क्योंकि यदि टीकाकार के मतानुसार ग्राशीर्वाद वचन के १ - पौरिएण्टल कोन्फ्रेंस - नवम अधिवेशन की कार्यवाही (डा० ए० एन० उपाध्ये का मत) पृ० ६७१ । २- प्राकृत व्याकरण - ६।२।१७४ ३ - वही |२| १०७
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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