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________________ ज्ञानवाद और प्रमाणशास्त्र २५३ अपितु प्रमाण का अन्य दार्शनिकों की तरह स्वतन्त्र विवेचन किया। उसकी उत्पत्ति और ज्ञप्ति पर भी विशेष भार दिया। ज्ञान को प्रमाण मानते हुए भी कोन सा ज्ञान प्रमाण हो सकता है, इसकी विशद चर्चा की । इस चर्चा के बाद में इस निर्णय पर पहुँचे कि ज्ञान और प्रमाण कथंचिद् अभिन्न हैं। __ प्रमाण क्या है ? इस प्रश्न को हस्तगत करने के लिए एक दो आचार्यों का अाधार लें। माणिक्यनन्दी प्रमाण का लक्षण बताते हुए कहते हैं कि वही ज्ञान प्रमाण है जो स्व का और अपूर्व अर्थ का निर्णय करता है । ज्ञान अपने को भी जानता है और वाह्य अर्थ को भी जानता है । ज्ञानरूप प्रमाण के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने को भी जाने और अर्थ को भी जाने । अर्थज्ञान में भी पिष्टपेषण न हो, अपितु कुछ नवीनता हो । इसलिए अर्थ के पहले 'अपूर्व' विशेषण है । ज्ञान ही प्रमाण क्यों है ? इसका उत्तर देते हुए कहा गया है कि ज्ञान ही प्रमाण है क्योंकि इष्ट वस्तु का ग्रहण और अनिष्ट वस्तु का त्याग ज्ञान के कारण ही हो सकता है । ग्रहण और त्याग रूप क्रियाएं ज्ञान के अभाव में नहीं घट सकतीं । अतः ज्ञान ही प्रमाण हो सकता है। ___ वादिदेवसूरि ने प्रमाण का लक्षण यों बताया-'स्व और पर का निश्चयात्मक ज्ञान प्रमाण है।' इन्होंने अपूर्व विशेषण हटा दिया । अपूर्व अर्थ का हो या पूर्व अर्थ का हो-कैसा भी ज्ञान हो, यदि वह निश्चयात्मक है तो प्रमाण है। ज्ञान ही यह बता सकता है कि क्या अभीप्सित है और क्या अनभीप्सित है, अतः वही प्रमाण है। श्राचार्य हेमचन्द्र ने प्रमाणमीमांसा में लिखा-अर्थ का सम्यक १-परीक्षामुख ११२ २-वही १२ ३-'स्वपरव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् । -प्रमाणनयतत्त्वालोक ११२ ४.वही ११३
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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