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________________ २५२ जैन-दर्शन गणधरों के शिष्यों के लिए अर्थरूप श्रागम परम्परागम है, क्योंकि उन्हें अर्थ का साक्षात् उपदेश नहीं दिया जाता अपितु परम्परा से प्राप्त होता है | अर्थागम तीर्थंकर से गणधरों के पास जाता है और गणधरों से उनके शिष्यों के पास श्राता है । सूत्ररूप श्रागम गणधर - शिष्यों के लिए अनन्तरागम है, क्योंकि सूत्रों का उपदेश उन्हें साक्षात् गणधरों से मिलता है । गणधर - शिष्यों के बाद में होने वाले प्राचार्यों के लिए अर्थागम और सूत्रागम दोनों परम्परागम हैं । इस विवेचन के आधार पर सहज ही इस निर्णय पर पहुँचा जा सकता है कि जैन आगमों मे प्रमाणशास्त्र पर प्रचुर मात्रा में सामग्री बिखरी पड़ी है । जिस प्रकार ज्ञान का विवेचन करने में ग्रागम पीछे नहीं रहे हैं उसी प्रकार प्रमाण की चर्चा में भी पीछे नहीं हैं । ज्ञान के प्रामाण्य-प्रप्रामाण्य के विषय में आगमों में अच्छी सामग्री है। यह ठीक है कि बाद में होने वाले दर्शन के आचार्यों ने इसका जिस ढंग से तर्क के आधार पर विचार किया है - पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष के रूप में जिन युक्तियों का आधार लिया है और जैन प्रमाणशास्त्र की नींव को सुदृढ़ बनाने का सफल प्रयत्न किया है वैसा प्रयत्न आगमों में नहीं मिलता; किन्तु मूलरूप में यह विषय उनमें अवश्य है । तर्कयुग में ज्ञान और प्रमाण : उमास्वाति ने ज्ञान और प्रमाण में किसी प्रकार का भेद नहीं रखा। उन्होंने पहले पाँच ज्ञानों के नाम गिनाए और फिर कह दिया कि ये पाँचों ज्ञान प्रमाण हैं | प्रमाण का अलग लक्षण बताकर, फिर ज्ञान में उस लक्षरण को घटा कर, ज्ञान और प्रमाण का अभेद सिद्ध करने के वजाय, ज्ञान को ही प्रमाण कह दिया | प्रामाण्य - श्रप्रामाण्य का ग्रलग विचार न करके ज्ञान के स्वरूप के साथ ही उनका स्वरूप समझ लेने का संकेत कर दिया | वाद में होने वाले तार्किकों ने इस पद्धति में परिवर्तन कर दिया । उन्होंने प्रमाण की स्वतन्त्र रूप से व्याख्या करना प्रारम्भ किया । उनका लक्ष्य प्रामाण्य-अप्रामाण्य की ओर अधिक रहा । मात्र ज्ञानों के नाम बनाकर और उनको प्रमाण का नाम देकर ही वे सन्तुष्ट न हुए ।
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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