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________________ २४२ जैन दर्शन को सामान्यग्राही मानने का अर्थ केवल इतना ही है कि उस उपयोग में सामान्य धर्म झलकता है जब कि ज्ञानोपयोग में विशेष धर्म की ओर प्रवृत्ति रहती है । इसका यह अर्थ नहीं कि सामान्य का तिरस्कार करके विशेष का ग्रहण किया जाता है अथवा विशेष को एक ग्रोर फेंककर सामान्य का सम्मान किया जाता है । वस्तु में दोनों धर्मों के रहते हुए भी उपयोग किसी एक धर्म का मुख्य रूप से ग्रहण कर सकता है । यदि ऐसा न होता तो हम सामान्य और विशेष का भेद ही नहीं कर पाते । उपयोग में धर्मों का भेद हो सकता है, वस्तु में नहीं । उपयोग में सामान्य और विशेष का भेद किसी भी तरह व्यभिचारी नहीं है । ज्ञान और दर्शन में क्या भेद है, इसका विवेचन हो चुका । ग्रव यह देखेंगे कि काल की दृष्टि से दोनों का क्या सम्बन्ध है ? जहाँ तक छद्मस्थ अर्थात् सामान्य व्यक्ति का प्रश्न है, सभी श्राचार्य एकमत हैं कि , दर्शन और ज्ञान युगपद् न होकर क्रमशः होते हैं । हाँ, केवली के प्रश्न को लेकर आचार्यों में मतभेद है । केवली में दर्शन और ज्ञान की उत्पत्ति कैसे होती है, इस प्रश्न के विषय में तीन मत हैं । एक मत के अनुसार दर्शन श्रौर ज्ञान क्रमशः होते हैं । दूसरी मान्यता के अनुसार दर्शन और ज्ञान युगपद् होते हैं। तीसरा मत यह है कि ज्ञान और दर्शन में अभेद है—दोनों एक हैं । । आवश्यक नियुक्ति में कहा गया है कि केवली के दो उपयोग एक साथ नहीं हो सकते' । आगम इस विषय में एकमत हैं । वे दर्शन और ज्ञान को युगपद् नहीं मानते । दिगम्बर आचार्य दूसरी मान्यता का समर्थन करते हैं । इस विषय में वे सभी एकमत हैं कि केवलदर्शन श्रौर केवलज्ञान युगपद् होते हैं । उमास्वाति का कथन है कि मति, श्रुत आदि में उपयोग क्रम से होता है, युगपद् नहीं । केवली में दर्शन और ज्ञानात्मक उपयोग प्रत्येक क्षण १ - ' सव्वस्स के व लिस्स वि जुगवं दो नत्थि उवओोगा', ६७३ २ - भगवतीसूत्र, १८१८
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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