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________________ २१४ जैन-दर्शन मतिज्ञान के विषय में एक शंका का समाधान करके फिर अवग्रहादि के विषय में लिखेंगे। शंका यह है कि मतिज्ञान की उत्पत्ति के लिए केवल इन्द्रिय और मन काफी नहीं है । उदाहरण के लिए चक्षुरिन्द्रिय को लीजिए । उसके द्वारा ज्ञान तभी उत्पन्न होता है जब प्रकाश और पदार्थ दोनों उपस्थित हों। इसलिए मतिज्ञान की उत्पत्ति के लिए यह आवश्यक है कि इन्द्रिय और मन के अतिरिक्त पदार्थ तथा अन्य आवश्यक सामग्री उपस्थित हो । जैन-दर्शन इस शर्त को नहीं मानता । अर्थ, आलोक आदि ज्ञान की उत्पत्ति में निमित्त नहीं हैं क्योंकि ज्ञानोत्पत्ति और अर्थालोक में कोई व्याप्ति नहीं है । दूसरे शब्दों में बाह्य पदार्थ और प्रकाश रूपज्ञानोत्पत्ति के प्रावश्यक और अव्यवहित कारण नहीं हैं । यह ठीक है कि वे आकाश, काल आदि की तरह व्यवहित कारण हो सकते हैं। यह भी ठीक है कि वे मतिज्ञानावरणादि कर्मों के क्षयोपशम के प्रति उपकारक हैं। इतना होते हुए भी इन्हें ज्ञानोत्पत्ति के प्रति कारण इसलिए नहीं माना जा सकता कि उनका और ज्ञान का अविनाभाव सम्बन्ध नहीं है। यह कैसे ? आलोक और अर्थ ज्ञानोत्पत्ति में अव्यवहित कारण तभी माने जाते, जब आलोक और अर्थ के अभाव में ज्ञान की उत्पत्ति होती ही नहीं। किन्तु ऐसी बात नहीं है। नक्तंचर, मार्जार आदि रात्रि में भी देखते हैं। यदि आलोक के अभाव में रूपज्ञान नहीं होता तो उन्हें कैसे दिखाई देता? यह कहने से काम नहीं चल सकता कि उनके नेत्रों में तेज होता है, अतः वे रात्रि में भी देख सकते हैं, क्योंकि ऐसा कहने का अर्थ होगा अपनी प्रतिज्ञा का त्याग । दूसरी ओर उलूकादि दिन के प्रकाश में नहीं देख सकते । वे रात्रि में ही देख सकते हैं । यदि प्रकाश ज्ञानोत्पत्ति का आवश्यक कारण होता तो उन्हें दिन में दिखाई देता। हमारे सामने दोनों तरह के उदाहरण विद्यमान हैं। पहला उदाहरगा रात्रि और दिन-अन्धकार और पालोक दोनों में रूपनान की उत्पत्ति का है। दूसरा उदाहरण बिल्कुल विपरीत है। केवल अंधकार में ही होने वाला रूपनान 'पालोक क भाव में रूपनान नहीं हो सकता' इस सिद्धान्त का सर्वनाश करता । इनके अतिरिका हमारे सामने ऐसे उदाहरण भी हैं, जिनसे
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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