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________________ २१० जैन दर्शन का सीधा सा दिग्दर्शन है। ज्ञान को प्रारम्भ से ही पाँच भागों में विभक्त करके मतिज्ञान के प्रवग्रहादि प्रभेद करना बहुत प्राचीन परिपाटी है । इस परिपाटी का दिग्दर्शन भगवतीसूत्र में है । द्वितीय भूमिका पर दार्शनिक चिन्तन का प्रभाव है और साथ ही साथ शुद्ध जैन दृष्टि की छाप भी है । सर्वप्रथम ज्ञान को प्रत्यक्ष और परोक्ष में विभक्त किया गया । यह विभाग बाद के जैनतार्किकों द्वारा भी मान्य हुआ । इस विभाग के पीछे वैशद्य और वैशद्य की भूमिका है। वैशद्य का आधार ग्रात्मप्रत्यक्ष है और प्रवैशद्य का आधार इन्द्रिय और मनोजन्य ज्ञान है । जैन दर्शन की प्रत्यक्ष और परोक्ष सम्बन्धी व्याख्या इसी आधार पर है । अन्य दर्शनों की प्रत्यक्ष - विपयक मान्यता से जैन दर्शन की प्रत्यक्ष विषयक मान्यता में यही अन्तर है कि जैन दर्शन आत्मप्रत्यक्ष को ही वास्तविक प्रत्यक्ष मानता है, जब कि अन्य दर्शन इन्द्रियजन्यज्ञान को भी प्रत्यक्ष मानते हैं । ग्रवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान प्रत्यक्ष के भेद हैं। क्षेत्र, विशुद्धि आदि की दृष्टि से इनमें तारतम्य है । केवलज्ञान शुद्धि, क्षेत्र प्रादि की अन्तिम सीमा है | इससे बढ़कर कोई ज्ञान विशुद्ध या पूर्ण नहीं है । ग्राभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष के भेद हैं । ग्राभिनिबोधकज्ञान को मतिज्ञान भी कहते हैं । श्रुतज्ञान का आधार मन है । मतिज्ञान का आधार इन्द्रियाँ और मन दोनों हैं । मति, श्रुतादि के अनेक अवान्तर भेद हैं । तृतीय भूमिका में जैन दृष्टि और इतर दृष्टि दोनों का पुट है । प्रत्यक्ष को इन्द्रिय- प्रत्यक्ष और नोइन्द्रिय- प्रत्यक्ष- इन दो भागों में बाँटा गया । इन्द्रिय प्रत्यक्ष में इन्द्रियजन्यज्ञान को स्थान मिला, जो वास्तव में इन्द्रियाश्रित होने से परोक्ष है । नोइन्द्रियप्रत्यक्ष में वास्तविक प्रत्यक्ष रखा गया, जो इन्द्रियाश्रित न होकर सीधा श्रात्मा से उत्पन्न होता है । इन्द्रियप्रत्यक्ष जैनेतर दृष्टि का, जिसे हम लौकिक दृष्टि कह सकते हैं, प्रतिनिधित्व करता है । नोइन्द्रियप्रत्यक्ष जैनदर्शन की वास्तविक परम्परा का द्योतक है ही । आभिनिबोधिक ज्ञान के अवग्रहादि भेदों का बांद के तार्किकों ने भी अच्छा विश्लेषण किया है । स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदि की इन 1
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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