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________________ २०६ जैन-दर्शन आगमों में भी यही बात मिलती है । आत्मा और ज्ञान के अभेद की चर्चा बहुत पुरानी है । कुन्दकुन्द ने सर्वज्ञ की चर्चा करते समय भी यही कहा कि व्यवहार दृष्टि से केवली सभी द्रव्यों को जानता है । परमार्थतः वह आत्मा को ही जानता है । आत्मा और ज्ञान में कोई भेद नहीं, अत: केवलो प्रात्मा को जानता है, इसका अर्थ यह हुआ कि केवलो अपने ज्ञान को जानता है। अपने ज्ञान को कैसे जाना जा सकता है ? उसके लिए किसी अन्य ज्ञान को आवश्यकता रहने पर अनवस्था होती है । ज्ञान स्वयं को स्वयं से जानता है, यह बात जल्दी समझ में नहीं पाती । कोई भी चतुर नट अपने खुद के कन्धों पर नहीं चढ़ सकता । अग्नि अपने आप को नहीं जला सकती। जैन दर्शन मानता है कि ज्ञान अपने आप को जानता हया ही दूसरे पदार्थों को जानता है। वह दीपक की तरह स्वयं प्रकाशक है । तात्पर्य यह है कि प्रात्मा का स्वरूप समझने के लिए ज्ञान का स्वरूप समझना बहुत आवश्यक है । इसीलिए ज्ञान का इतना महत्त्व है। आगमों में ज्ञालबाद : आगमों में ज्ञान-सम्बन्धी जो मान्यताएँ मिलती हैं वे बहुत प्राचीन हैं। सम्भवत: ये मान्यताएँ भगवान महावीर के पहले की हों। पंचज्ञान की चर्चा आगम साहित्य में मिलती है। उसके विषय में राजप्रश्नीयसूत्र में एक वृतान्त मिलता है। श्रमण केशिकुमार अपने मुख से कहते हैं-"हम श्रमण निर्ग्रन्थ पाँच प्रकार के ज्ञान मानते हैं-आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान । केशिकुमार पार्श्वनाथ की परम्परा के साधु थे। उन्होंने अपने मुख से पाँच ज्ञानों का नाम लिया है। ठीक वे ही पाँच ज्ञान महावीर की परम्परा में भी प्रचलित हुए । महावीर ने ज्ञानविषयक कोई नवीन प्ररूपणा १- जागदि पस्सदि सव्वं, ववहारणएण केवली भगवं । केवलारणारणी जारणदि, पस्सदि रिणयमेण अप्पारणं ।। -नियमसार, १५८ २-‘एवं खु पएसी अम्हं समगाणं निग्गंथाणं पंचविहे नाणे पण्णते । तंजहा अभिरिणवोहियनाणे, सुयनारणे, अोहिणाणे, मणपज्जवणाणे केवलगाणे' । १६१
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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