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________________ स्वाभा नहीं दर्शन ज्ञानवाद और प्रमाणशास्त्र जान और ग्रात्मा का सम्बन्ध दण्ड और दण्डी के सम्बन्ध से भिन्न है । जान प्रात्मा का स्वाभाविक गुण है । ज्ञान के अभाव में श्रात्मा की कल्पना करना सम्भव नहीं। न्याय-वैशेपिक दर्शन ज्ञान को आगन्तुक मानता है, मौलिक नहीं । जैन दर्शन ज्ञान को आत्मा का मौलिक धर्म मानता है। कहीं-कहीं तो ज्ञान को इतना अधिक महत्त्व दिया गया है कि आत्मा के अन्य गुग्गों की उपेक्षा करके ज्ञान और प्रात्मा को एक मान लिया गया है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने व्यवहार नय और निश्चय नय का सहारा लेकर कहा कि व्यवहार नय से आत्मा और ज्ञान में भेद है, किन्तु निश्चयनय से प्रात्मा और जान में कोई भेद नहीं । यहाँ पर यात्मा के अन्य गुणों को ज्ञानान्तर्गत पार लिया गया है, अन्यथा यह कभी नहीं हो सकता कि ज्ञान ही मात्मा हो जाय, क्योंकि यात्मा में और भी कई गुण हैं। इस बात या प्रमाण आगे मिलता है। प्रवचनसार में उन्होंने स्पष्ट लिख दिया कि अनन्तसुन अनन्तनान है । सुख और ज्ञान अभिन्न है। जैन -~समयमार. ६१७ २. वही, १५६-६०
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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