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________________ २०० जैन-दर्शन का कभी विनाश नहीं होता । इस प्रकार के परिवर्तन परिणाम कहे जाते हैं। इन परिणामों का जो कारण है वह काल है। यह व्यवहार दृष्टि से काल की व्याख्या हुई । प्रत्येक द्रव्य और पर्याय की प्रतिक्षणभावी स्वसत्तानुभूति वर्तना है । इस वर्तना का कारण काल है । यह काल की पारमार्थिक व्याख्या है। प्रत्येक द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक वृत्तिवाला है । यह वृत्ति प्रतिक्षण रहती है। कोई भी क्षण इस वृत्ति के विना नहीं रह सकता । यही पारमार्थिक काल का कार्य है। काल का अर्थ है परिवर्तन । परिवर्तन को समझने के लिए अन्वय का ज्ञान होना आवश्यक है। अनेक परिवर्तनों में एक प्रकार का अन्वय रहता है। इसी अन्वय के आधार पर यह जाना जा सकता है कि इस वस्तु में परिवर्तन हुमा । यदि अन्वय न हो तो क्या परिवर्तन हुआ, किसमें परिवर्तन हुआ-इसका जरा भी ज्ञान नहीं हो सकता । यही बात ऊपर कही गई है। स्वजाति का त्याग किए बिना विविध प्रकार के परिवर्तन होना, काल का कार्य है। इसी काल के आधार पर हम घंटा, मिनट, सेकण्ड आदि विभाग करते हैं । यह व्यावहारिक काल है। पारमार्थिक या निश्चय हृष्टि से प्रत्येक पदार्थ का क्षणिकत्व काल का द्योतक है । क्षण-क्षरण में पदार्थ में परिवर्तन होता रहता है, यह परिवर्तन वौद्ध परिवर्तन की तरह ऐकान्तिक न होकर ध्रौव्ययुक्त है। इस प्रकार दोनों दृष्टियों से काल का लक्षण परिवर्तन है । काल असंख्यात प्रदेश प्रमाण होता है । ये प्रदेश एक अवयवी के प्रदेश नहीं हैं, अपितु स्वतन्त्र रूप से सत् हैं । इसीलिए काल को अनस्तिकाय कहा गया है । लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर एक एक काल प्रदेश बैठा हुआ है। रत्नों की राशि की तरह लोकाकाश के एक एक प्रदेश पर जो एक एक द्रव्य स्थित है वह काल है । वह असंख्यात द्रव्यप्रमाण है। इससे यह फलित होता है कि काल एक १~वही ५२२,४ २-लोयायासपदेसे, इक्केक्के जे ठिया हु इक्केक्का । रयरणारण रासी इव, ते कालारणू असंखदव्वाणि ॥ -द्रव्यसंग्रह, २२
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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