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________________ जैन दर्शन में तत्त्व १८७ में परिणत करता है ? समान गुण वाले सदृश अवयवों का तो बन्ध होता ही नहीं । विसदृश बन्ध के समय कभी एक सम दूसरे सम को अपने रूप में परिणत कर लेता है, कभी दूसरा सम पहले को अपने रूप में बदल लेता है । द्रव्य, क्षेत्रादि का जैसा संयोग होता है वैसा हो जाता है । इस प्रकार का बन्ध एक प्रकार का मध्यम बन्ध है । अधिक गुण और हीन गुरण के बन्ध के समय अधिक गुरणवाला हीन गुणवाले को अपने रूप में परिणत कर लेता है' । जिस परम्परा में समान गुण का पारस्परिक बन्ध नहीं होता वहाँ अधिक गुरण हीन गुण को अपने स्वरूप में परिणत कर लेता है, यही काफी है । २ पुद्गल द्रव्य के अरण और स्कन्ध ये दो मुख्य भेद हैं । इन भेदों . के ग्राधार से बनने वाले छः भेदों का भी वर्णन मिलता है । ये छ: भेद निम्नलिखित हैं : १ - स्थूलस्थूल - -मिट्टी, पत्थर, काष्ट आदि ठोस पदार्थ इस श्रेणी में आते हैं । २ - स्थूल - दूध, दही, मक्खन, पानी, तैल ग्रादि द्रव पदार्थ स्थूल विभाग के अन्तर्गत हैं । . ३ — स्थूलसूक्ष्म - प्रकाश, विद्युत्, उष्णता आदि अभिव्यक्तियाँ स्थूल सूक्ष्म कोटि में आती हैं । ४- सूक्ष्मस्थूल -- वायु, वाष्प आदि सूक्ष्मस्थूल भेद के ग्रन्तर्गत आते हैं । ५ – सूक्ष्म — मनोवर्गरणा प्रादि चाक्षुप (चक्षुरादि इन्द्रियों के विषय नहीं हैं ) द्रव्य सूक्ष्म पुद्गल हैं । ६ - सूक्ष्म सूक्ष्म - ग्रन्तिम निरंश पुद्गल परमाणु सूक्ष्म-सूक्ष्म कोटि में आते हैं । १ - 'बन्धेसमाधिको पारिणामिकी' २ - 'वन्धे समाधिको पारिणामिका' ३ --- नियममार, २१ -- तत्त्वार्थ सूत्र ५ । ३६ वही ५।३६
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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