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________________ १७६ जैन-दर्शन हो जाएँगे, क्योंकि उनका हमें इस समय प्रत्यक्ष नहीं हो रहा है । ऐसी दशा में सारा व्यवहार लुप्त हो जाएगा। पिता की मृत्यु के बाद 'मैं अपने पिता का पुत्र हूँ' ऐसा नहीं कहा जा सकेगा, क्योंकि पिता का प्रत्यक्ष ही नहीं है । इस कठिनाई को दूर करने के लिए अनुमान का सहारा लेना पड़ता है। 'पुत्र' कार्य है, इसलिए उसका कारण 'पिता' अवश्य होना चाहिए । इसी प्रकार कर्मों के कार्यों को देखकर कारण रूप कर्मों का अनुमान लगाना ही पड़ता है । इसी चीज को दूसरी तरह से देखें। परमाणु इन्द्रिय-प्रत्यक्ष का विपय नहीं है किन्तु घटादि कार्य देख कर तत्कारण रूप परमाणुयों का अनुमान किया जाता है। इसी प्रकार सुखदुःखादि के वैपम्य को देखकर तत्कारणरूप कर्मों का अनुमान करना युक्तिसंगत है। ___ यहाँ एक प्रश्न उठ सकता है । चन्दन, अंगनादि के संयोग से व्यक्ति को सुख की प्राप्ति होती है और विष, कण्टक, सर्पादि से दुःख मिलता है। ये प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले कारण ही सुख और दुःख के कारण हैं । ऐसी दशा में हम अदृश्य कारणों की कल्पना क्यों करें ? जो कारण दिखाई देते हैं उन्हें छोड़कर ऐसे कारणों की कल्पना करना जो अप्रत्यक्ष हैं, ठीक नहीं । प्रश्न बहुत अच्छा है किन्तु उसमें थोड़ा सा दोष है । दोष यह है कि वह व्यभिचारी है। यह हमारा प्रतिदिन का अनुभव है कि एक ही प्रकार के साधनों के रहते हुए एक व्यक्ति अधिक सुखी होता है, दूसरा कम सुखी होता है, तीसरा दुःखी होता है । समान साधनों से सबको समान सुख नहीं मिलता । यही बात दुःख के साधनों के विषय में भी कही जा सकती है। ऐसा क्यों होता है.? इसके लिए किसी-नकिसी अदृष्ट की कल्पना करनी पड़ती है। जिस प्रकार हम युवकदेह को देखकर बालदेह का अनुमान करते हैं उसी प्रकार बालदेह को देखकर भी किसी अन्य देह का अनुमान करना चाहिए । यह देह 'कार्मण शरीर' है। यह परम्परा अनादिकाल से चली आती है। १-विशेषावश्यकभाष्य, १६१४
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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