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________________ जैन-दर्शन में तत्त्व १७५ असमानता से पुरुषवहुत्व की सिद्धि हो सकती है। सत्त्व, रजस् और तमस् की असमानता के स्थान पर जैन कर्म की असमानता का प्रयोग कर सकते हैं। प्रात्मा के बहुत्व की सिद्धि के लिए इतनी चर्चा काफी है। ____ आत्मा 'पौद्गलिक कर्मों से युक्त है' यह लक्षण दो बातों को प्रकट करता है। पहली बात तो यह है कि जो लोग कर्म आदि की सत्ता में विश्वास नहीं रखते उनके सिद्धान्त का खण्डन करता है। दूसरी बात यह है कि जो लोग कर्मों को मानते हैं किन्तु उन्हें पौद्गलिक अर्थात् भौतिक नहीं मानते उनके मत को दूषित ठहराता है। कर्म' पद से प्रथम बात निकलती है और 'पौद्गलिक' पद से दूसरी बात प्रकट होती है। चार्वाक जो कि कर्म की सत्ता में विश्वास नहीं करते उनकी मान्यत का खण्डन करते हुए कहा जा सकता है कि सुख-दुःखादि की विषमता का कोई-न-कोई कारण अवश्य है, क्योंकि यह एक प्रकार का कार्य है जैसे अंकुरादि । केवल आत्मा में सुखदुःखादि की विषमता नहीं होती । वह तो अनन्तसुखात्मक है और फिर चार्वाक आत्मा को मानते भी नहीं । भूतों का विशिष्ट संयोग भी इस विषमता का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि उस संयोग की विषमता के पीछे कोई-न-कोई अन्य कारण अवश्य होना चाहिए, जिसके कारण संयोग में वैषम्य होता है । वह कारण क्या है ? उस कारण की खोज में वर्तमान को छोड़कर भूत तक पहुँचना पड़ता है। वही कारण कर्म है। यदि कोई यह कहे कि हमें कर्मों का प्रत्यक्ष नहीं होता, इसलिए कर्म मानने की कोई आवश्यकता नहीं है । ऐसी अवस्था में उसे यह उत्तर दिया जा सकता है कि जो वस्तु इन्द्रिय-प्रत्यक्ष का विषय न हो वह है ही नहीं, ऐसा नहीं कहा जा सकता, अन्यथा भूत और भविष्य के जितने भी पदार्थ हैं सव असत् १.-जननमरणकरणानां, प्रतिनियमाद् युगपत् प्रवृत्तेश्च । पुरुषबहुत्वं सिद्ध, वैगुण्यविपर्ययाच्चैव ॥ -सांख्यकारिका, १८
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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