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________________ जैन-दर्शन में तत्त्व १५७ होते तो रूपादि की भाँति वे भी किसी-न-किसी रूप में उपलब्ध होते। ____ शरीर ज्ञानादि गुणों का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि शरीर भौतिक तत्वों का कार्य है और भौतिक तत्त्व चेतना-शून्य हैं। जब भूतों में ही चैतन्य नहीं है तो उनके कार्य में चैतन्य कहाँ से आ जाएगा। प्रत्येक कार्य, कारण में अनुभूत रूप से रहता है । जव वह कारण कार्यरूप में परिणत होता है तव वह शक्तिरूप से रहा हुआ कार्य अभिव्यक्तरूप में हमारे सामने आ जाता है। इसके अतिरिक्त कारण और कार्य में कोई विशेष अन्तर नहीं है । जब भौतिक तत्त्वों में ही चेतना नहीं है तव यह कैसे सम्भव है कि शरीर चैतन्यगुण वाला हो जाय? यदि चेतना प्रत्येक भौतिक तत्त्व में नहीं है तो उन तत्त्वों के संयोग से भी वह उत्पन्न नहीं हो सकती । रेणु के प्रत्येक कण में न रहने वाला तैल रेणुकरणों के संयोग से उत्पन्न नहीं हो सकता। अत: यह कहना युक्तिसंगत नहीं कि चैतन्य चतुर्भूत के विशिष्ट संयोग से उत्पन्न होता है यद्यपि इन चारों भूतों में पृथक्-पृथक् चैतन्य नहीं है । किण्वादि द्रव्यों के विशिष्ट संयोग से उत्पन्न होने वाली मादकता सर्वथा नवीन हो, ऐसी बात नहीं है । मादकता का कुछ-न-कुछ अंश प्रत्येक द्रव्य में अवश्य रहता है । अन्यथा उनके अतिरिक्त अन्य किसी भी द्रव्य से वही मादकता क्यों नहीं उत्पन्न हो जाती । मक्किदा में रहने वाली मादकता ही अभिव्यक्त रूप से प्रकट होती है। जो गधित रूप से सत् न हो वह अभिव्यक्त रूप से भी वन्त ही रहता है। जो वस्तु सर्वथा असत् है वह कभी भी मन नहीं हो सकती-से रवपुप्प । जो वस्तु सत् होती है वह कभी भी मया अमन नहीं हो सकती-जैसे चतुत'। यदि चैतन्य या अमत है तो वह १-'प्रत्येकमसती तेपु न स्याद-मननन्। दावामनः २-पड्दर्शनसमुन्चय, ६८६ ३-'नासतो विद्यते भावो नाना मित्रा'
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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