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________________ १५६ ___... जैन-दर्शन सकता है । जब गुण का अनुभव होता है तव गुणों का अस्तित्व भी होना ही चाहिए।' वादी इस हेतु को मान लेता है, कि किन्तु वह कहता है ज्ञानादि गुणों का आधार शरीर के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है । ज्ञानादि जितने भी गुण पाए जाते हैं, सब शरीराश्रित हैं । ऐसी दशा में शरीर से भिन्न एक स्वतन्त्र आत्मा मानने की कोई आवश्यकता नहीं । ज्ञानादि शरीर की ही क्रियाएँ हैं, अतः उनका अाधार शरीर से भिन्न कोई द्रव्य नहीं है । वादी का हेतु यों है-ज्ञानादि शरीर के गुण हैं, क्योंकि वे केवल शरीर में हो पाए जाते हैं, जो शरीर में ही पाये जाते हैं वे शरीर के गुण होते हैं, जैसे मोटाई और दुबलापन आदि । . वादी का यह हेतु व्यभिचारी है । यह कैसे ? इसका उत्तर यों है-ज्ञानादि गुण भौतिक शरीर के गुण नहीं हो सकते, क्योंकि वे अरूपी हैं, जब कि शरीर रूपी है, जैसे घट । रूपी द्रव्य के गुण अरूपी नहीं हो सकते, जैसे घट के गुण अरूपी नहीं हैं, क्योंकि वे इन्द्रिय-ग्राह्य हैं । ज्ञानादि गुण अरूपी हैं, क्योंकि वे इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं हैं। इसलिए ज्ञानादि गुण शरीर के गुण नहीं हो सकते, क्योंकि शरीर रूपी है और उसके गुण भी रूपी हैं और चक्षुरादि इन्द्रियों से उन गुणों का ग्रहण होता है । इसलिये ज्ञानादि गुणों का अन्य प्राश्रय होना चाहिए। यह आश्रय आत्मा है, जो अरूपी है। । दूसरी बात यह है कि कभी-कभी यह भी देखा जाता है कि शरीर की उपस्थिति में भी ज्ञानादि गुणों का अभाव रहता है।' सुषुप्ति, मूर्छादि अवस्थाओं में शरीर के विद्यमान रहते हुए भी ज्ञानादि गुण नहीं मिलते । इससे मालूम होता है कि ज्ञानादि गुरण शरीर के नहीं, अपितु किसी अन्य तत्त्व के हैं । यदि शरीर के गुण १-विशेषावश्यक भाष्य, १५५८ २-ज्ञानं न शरीरगुणं, सति शरीरे निवर्तमानत्वात् ।। .... -प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृष्ठ ११४
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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