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________________ १५४ जैन-दर्शन इन हेतुओं का इस प्रकार खण्डन हो सकता है : प्रथम हेतु में प्रत्यक्ष का अभाव वताया गया, वह ठीक नहीं। केवल इन्द्रियप्रत्यक्ष को ही किसी तत्त्व की सिद्धि में प्रमाण मानना, युक्ति-युक्त नहीं । ऐसा मानने पर सुखदुःखादि का भी अभाव सिद्ध होगा, क्योंकि वे इन्द्रिय-प्रत्यक्ष के विषय न होकर मानसिक अनुभव के विषय हैं । अात्मा प्रत्यक्ष से सिद्ध है, क्योंकि संशय आदि जितनी भी मानसिक और बौद्धिक क्रियाएँ है, सब आत्मा के कारण ही हैं । जहाँ संशय होता है वहाँ अात्मा का अस्तित्व अवश्य स्वीकृत करना पड़ता है । जो प्रत्यक्ष अनुभव से सिद्ध है, उसे सिद्ध करने के लिए किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती । आत्मा स्वयं सिंद्ध है, क्योंकि उसी के आधार पर संशयादि उत्पन्न होते हैं। सुखदुःखादि को सिद्ध करने के लिए भी किसी अन्य प्रमाण को आवश्यकता नहीं । ये सब आत्मपूर्वक ही हो सकते हैं। ___अहं प्रत्यय का अाधार कोई न कोई अवश्य होना चाहिए, क्योंकि उसके बिना त्रैकालिक अहं प्रत्यय नहीं हो सकता । जड़ भूतों में यह शक्ति नहीं कि वे अहं प्रत्यय को उत्पन्न कर सकें, क्योंकि अहं प्रत्यय के अभाव में जड़ का ज्ञान ही नहीं हो सकता। पहले अहं प्रत्यय होता है तब 'यह जड़ है' ऐसा ज्ञान होता है, ऐसी दशा में जड़ से अहं प्रत्यय उत्पन्न होता है, यह नहीं कहा जा सकता। अहं प्रत्यय के अभाव में जड़ तत्त्व की सिद्धि ही नहीं हो सकती, फिर यह कैसे बन सकता है कि जड़ से अहं प्रत्यय उत्पन्न हो । अहं प्रत्यय-पूर्वक ही जड़-प्रतीति होती है, जड़प्रतीति-पूर्वक अहं प्रत्यय नहीं। यदि अात्मा नहीं है तो अहं प्रत्यय कैसे होता है ? आत्मा के अभाव में यह सन्देह कैसे हो सकता है कि आत्मा है या नहीं ? यह हेतु मनोवैज्ञानिक दृष्टि से है। स्मति, प्रत्यभिज्ञान, संशय, निर्णय आदि जितनी भी मनोवैज्ञानिक क्रियाएँ हैं, किसी एक स्थायी चेतन तत्त्व के अभाव में नहीं हो सकतीं। ये सारी क्रियाएँ किसी एक चेतन तत्त्व को आधार या केन्द्र बनाकर ही घट सकती हैं। १-वही १५५६
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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