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________________ जैन-दर्शन में तत्त्व १५३ ऐसी स्थिति में आगम को आधार मानकर प्रात्मा के अस्तित्व की सिद्धि करना खतरे से खाली नहीं। उपमान से भी प्रात्मा की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि जगत् में कोई ऐसा पदार्थ नहीं जिसकी समानता के आधार पर आत्मा का अस्तित्व सिद्ध किया जा सके । जव यात्मा का ही प्रत्यक्ष नहीं तो अमुक पदार्थ आत्मा के सदृश है, ऐसा कैसे कहा जा सकता है ? मूल के अभाव में सादृश्य-ज्ञान केवल कल्पना है । 'यह उसके समान है' ऐसा कथन तभी संभव है जब उस पदार्थ का, जिसके समान अमुक पदार्थ है, कभी प्रत्यक्ष हुया हो । जव मूल पदार्थ का ही प्रत्यक्ष न हो तव समानता के आधार पर उस पदार्थ का ज्ञान होना असम्भव है। अपत्ति से भी प्रात्मा का अस्तित्व सिद्ध नहीं किया जा सकता। ऐसा कोई पदार्थ नहीं जिसके सद्भाव को देखकर यह कहा जा सके कि आत्मा के अभाव में इस पदार्थ का सद्भाव नहीं हो सकता । जब इस पदार्थ का सद्भाव है तो प्रात्मा का सद्भाव अवश्य होना चाहिए । अतः अर्थापत्ति भी प्रात्मा को सिद्ध करने में असमर्थ है। __इस प्रकार जब पांचों सद्भावसाधक प्रमाणों से प्रात्मा के अस्तित्व की सिद्धि नहीं हो सकती तव स्वाभाविक तौर से अभाव प्रमाण की प्रवृत्ति होती है । अभावप्रमाण असद्भाव साधक है अत. यह सिद्ध हो जाता है कि प्रात्मा असत् है । यह अभाव, अमुक स्थान पर प्रात्मा नहीं है, ऐसा नहीं कहता अपितु सर्वत्र आत्मा नहीं है, इस प्रकार से प्रात्मा के प्रात्यन्तिक अभाव की सूचना देता है। किसी वस्तु का एक जगह प्रत्यक्ष होता है और अन्यत्र प्रत्यक्ष नहीं होता, तव यह कहा जा सकता है कि अभाव ने अमुक क्षेत्र में अमुक वस्तु के असद्भाव को स्थापना या सिद्धि की । आत्मा का कहीं प्रत्यक्ष नहीं होता अतः प्रात्मा के अभाव का जो ज्ञान है वह प्रात्यन्तिक अभाव का सूचक है । इस प्रकार प्रर्वपक्ष के रूप में प्रात्मा के अस्तित्व के विरोध में उपरोक्त हेतु उपस्थित किए गए। इन हेतुनों का मुख्य आधार प्रत्यक्ष है-इन्द्रियप्रत्यक्ष है। इन्द्रिय प्रत्यक्ष के विषय में अभाव में प्रात्मा का सद्भाव सिद्ध नहीं किया जा सकता, यही मुख्य आधार है ।
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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