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________________ ११८ जैन-दर्शन जो वैदिक और श्रीपनिपदिक उद्धरणों से रामलंकृत है । इस प्रकार पंडित जी का सम्पादन और अनुसंधान कार्य एक दृष्टि से पूरे भारतीय दर्शनशास्त्र पर हया है। जैनदर्शन का तुलनात्मक अध्ययन करने की नवीन दिशा का निर्माण कर उन्होंने भारतीय वाङ्मय की बहुत बड़ी सेवा की है। इस क्षेत्र में पंडित जी की परम्परा के निभाने वाले दो और मुख्य व्यक्ति हैं-६० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य एवं पं० दलसुख मालवगिया । पं० महेन्द्रकुमार जी के सम्पादकत्व में प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र, न्यायविनिश्चयविवरण, तत्त्वार्थ की श्रु तसागरी टीका श्रादि कई ग्रन्थ प्रकाशित हए। प्रमेयकमलमार्तण्ड जैन प्रमाणशास्त्र का उत्कृष्ट ग्रन्थ है। पंडितजी ने इसका सम्पादन तुलनात्मक टिप्प. गादि देकर किया है । इस ग्रन्थ के सम्पादन में काफी परिश्रम करना पहा है। इगी प्रकार न्यायकुमुदचन्द्र का सम्पादन भी काफी महत्वपूर्ण है। इन दोनों बृहत्काय ग्रन्थों की प्रस्तावनाएँ ऐतिहासिक एवं दार्शनिक दोनों दृप्टियों से महत्वपूर्ण हैं । न्यायविनिश्चयविवरण में अकलंक के मुल योर वादिराज के विवरण की अन्य दर्शनों के साथ तुलना की गई है। प्रस्तावना में सम्पादक ने स्याहाद सम्बन्धी अनेक भ्रमों के निरसन का गफल प्रयत्न किया है। तत्त्वार्थ की थ तमागरी टीका की प्रस्तावना में अनेक दार्शनिक एवं अन्य विषयों की विशद चर्चा की गई है। उसका लोकवर्गान और भूगोल भाग विशेष महत्व का है । इस भाग में जैन, बांद्र गान ब्राहागा परम्परा के मन्तव्यों की तुलना की गई है। ___० दलमुल मालवगिया द्वाग सम्पादित न्यायावतार-वात्तिक-वृत्ति न न्याय का प्राचीन एवं महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इगकी मूल कारिका मिळनकल गौर उन पर पाबद्ध वानिक और उगकी गद्य वृत्ति दोनों माल्यानार्य बत हैं, जैना कि हम पहले लिख चुके हैं । गम्पादक पं० दममा मानवगिया ने उनकी विस्तृत भूमिका में ग्रागमयुग से लेकर TET बनकर जनदर्शन के प्रमागा-प्रमेय विषयक चिन्तन एवं कामाणिक व तुलनात्मक दृष्टि ग अत्यन्त महत्वपूर्ण 7 दिया। ग्रन्थ मन में बिहान सम्पादक ने अनेक
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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