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________________ ११० जैन-दर्शन है । तत्वज्ञान, शब्दशास्त्र, जातिवाद आदि सभी विषयों पर प्रभाचन्द्र की कलम चली है । मूलसूत्र और कारिकाओं का तो मात्र आधार है। जो कुछ उन्हें कहना था वह किसी न किसी बहाने कह डाला। प्रभाचन्द्र की एक विशेषता और है-वह है विकल्पों का जाल फैलाने की। किसी भी प्रश्न को लेकर दस-पन्द्रह विकल्प सामने रख देना तो उनके लिए सामान्य बात थी। उनका समय वि० १०३७ से ११२२ तक का है। वादिराज प्रभाचन्द्र के समकालीन थे। इन्होंने अकलंककृत न्याय विनिश्चय पर विवरण लिखा है । ग्रन्थों के उद्धरण देना उनकी विशेषता है । प्रमाणशास्त्र की दृष्टि से यह विवरण महत्वपूर्ण है। जगहजगह अनेकान्तवाद की पुष्टि की गई है और वह भी पर्याप्त मात्रा में । जिनेश्वर, चन्द्रप्रभ और अनन्तवीर्य : जिनेश्वर की रचना न्यायावतार पर प्रमालक्ष्म नामक वात्तिक है । इसमें इतर दर्शनों के प्रमाणभेद, लक्षण आदि का खण्डन किया गया है और न्यायावतार-सम्मत परोक्ष के दो भेद स्थिर किए गए हैं। वात्तिक के साथ उसकी स्वोपज्ञ व्याख्या भी है। इसका रचना काल १०६५ के आस-पास है। प्राचार्य चन्द्रप्रभसूरि ने वि० ११४६ के आस-पास प्रमेयरत्नकोष नामक एक संक्षिप्त ग्रन्थ लिखा । यह ग्रन्थ प्रारम्भिक अभ्यास करने वालों के लिए बहुत काम का है। - इसी समय प्राचार्य अनन्तवीर्य ने परीक्षामुख पर प्रमेयरत्नमाला नामक एक संक्षिप्त और सरल टीका लिखी । यह टीका सामान्य स्तर वाले अभ्यासियों के लिए विशेष उपयोगी है। इसमें प्रमेयकमलमार्तण्ड की तरह लम्बे चौड़े विवादों को स्थान न देकर मूल समस्याओं का ही सौम्य भाषा में समाधान किया गया है । वादी देवसूरि : प्रमाणशास्त्र पर परीक्षामुख के समान ही एक अन्य ग्रन्थ लिखने . वाले वादी देवसूरि हैं । परीक्षामुख का अनुकरण करते हुए भी उन्होंने अपने ग्रन्थ प्रमाणनयतत्त्वालोक में दो नए प्रकरण जोड़े, जो परीक्षा
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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