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________________ जैन-दर्शन चार्यकृत है। दशाश्रु त, बृहत्कल्प और व्यवहार के कर्त्ता भद्रबाहु स्वामी हैं । ज्ञान की प्रायः सभी शाखाएँ उपर्युक्त सूत्रों में आ जाती हैं। कुछ सूत्रों का सम्बन्ध जैन आचार से है जैसे प्राचारांग, दशवैकालिक आदि । कुछ उपदेशात्मक हैं जैसे उत्तराध्ययन, प्रकीर्णक आदि। कुछ सूत्र तत्कालीन भूगोल और खगोल पर लिखे गए हैं—जैसे जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि। जैन साधुनों के प्राचार सम्बन्धी प्रौत्सर्गिक और पापवादिक नियमों के लिए छेदसूत्र लिखे गए। कुछ सूत्र ऐसे हैं जिनमें आदर्श चरित्र दिए गए हैं-जैसे उपासकदशा, अनुत्तरौपपातिक दशा आदि । कुछ सूत्र ऐतिहासिक और कल्पित कथाओं के संग्रह हैं- जैसे ज्ञातृधर्मकथा आदि। विपाकसूत्र शुभ और अशुभ कर्मों का कथायुक्त वर्णन है। भगवती सूत्र में महावीर के साथ हुए प्रश्नोत्तर एवं संवाद संगृहीत हैं। सूत्रंकृत, प्रज्ञापना, राजप्रश्नीय, भगवती, नन्दी, स्थानांग, समवाय और अनुयोग मुख्य रूप से दार्शनिक विषयों की चर्चा करते हैं। सूत्रकृतांग में तत्कालीन दार्शनिक मन्तव्यों का निराकरण किया गया है। भूताद्वैतवाद का निराकरण करके आत्मा की पृथक् सिद्धि की गई है । ब्रह्माद्वैतवाद के स्थान पर नानात्मवाद की स्थापना की गई है। कर्म और उसके फल की सिद्धि की गई है। जगदुत्पत्ति-विषयक ईश्वरवाद का खण्डन करके यह दिखाया गया है कि संसार अनादि-अनन्त है। तत्कालीन क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद, अज्ञानवाद ग्रादि का निराकरा करके तर्कसंगत क्रियावाद की स्थापना की गई है। प्रज्ञापना में जीव के विविध भावों पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। राजप्रश्नीय में पार्श्वनाथ की परम्परा के केशीश्रमण ने श्रावस्ती के राजा प्रदेशी द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर में नास्तिकवाद का निराकरगा करके अात्मा और परलोक आदि विपयों को दृष्टांत एवं युक्ति पूर्वक समझाया है। भगवती मूत्र में नय, प्रमाण, सप्तभंगी, अनेकान्तवाद आदि विषयों पर अच्छा प्रकाग डाला गया है। नन्दीमूत्र ज्ञान के स्वरूप और उसके भेद अादि का वर्णन करने वाना एक अच्छा ग्रन्थ है।
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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