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________________ जैन-दर्शन और उसका आधार ७७ · तपस्या का दूसरा नाम परिश्रम भी है ।' जो व्यक्ति अपने ही श्रम से उत्कर्ष की प्राप्ति करते हैं, वे श्रमण कहलाते हैं । समन का अर्थ होता है समानता। जो व्यक्ति प्राणी सात्र के प्रति समभाव रखता है, विषमता से हमेशा दूर रहता है, जिसका जीवन विश्व-प्रेम और विश्वबन्धुत्व का प्रतीक होता है, जिसके लिए स्व-पर का भेदभाव नहीं होता, जो प्रत्येक प्राणी से उसो भाँति प्रेम करता है जिस प्रकार खुद से प्रेम करता है, उमक किसी के प्रति द्वष नहीं होता और न किसी के प्रति उसका राग ही होता है, वह राग और द्वेष की तुच्छ भावना से ऊपर उठकर सबको एक दृष्टि से देखता है । उसका विश्व-प्रेम घृणा और आसक्ति की छाया से सर्वथा अछूता रहता है। वह सबसे प्रेम करता है किन्तु उसका प्रेम राग की कोटि में नहीं पाता । वह प्रेम एक विलक्षण प्रकार का प्रेम होता है, जो राग और द्वष दोनों की सीमा से परे होता है। राग और द्वेष साथसाथ चलते हैं, किन्तु प्रेम अकेला ही चलता है । शमन का अर्थ है-शान्त करना। जो व्यक्ति अपनी वृत्तियों को शान्त करने का प्रयत्न करता है, अपनी वासनाओं का दमन करने की कोशिश करता है और अपने इस प्रयत्न में बहुत कुछ सफल होता है वह श्रमण-संकृति का सच्चा अनुयायी है। हमारी ऐसी वृत्तियाँ, जो उत्थान के स्थान पर पतन करती हैं, शान्ति की बजाय अंशान्ति उत्पन्न करती हैं, उत्कर्ष की जगह अपकर्ष लाती हैं वे जीवन को कभी सफल नहीं होने देतीं। ऐसी अकुशल वृत्तियों को शान्त करने से ही सच्चे लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है । इस प्रकार की कुवृत्तियों को शान्त करने से ही आध्यात्मिक विकास हो सकता है । श्रमण संस्कृति के मूल में श्रम, सम और शम, ये तीनों तत्त्व विद्यमान हैं । यही 'श्रमण' शब्द का रहस्य है। जैन-परम्परा का महत्त्व : श्रमण संस्कृति की अनेक धाराओं में जैन-परम्परा का बहत महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह हम देख चुके हैं कि श्रमण संस्कृति की दो मुख्य धाराएँ आज भी जीवित हैं। उनमें से वौद्ध परम्परा का १.-'श्राम्यन्तीति श्रमणा : तपस्यन्तीत्यर्थः' दशकालिकवृत्ति १, ३ . :..
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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