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________________ जैन-दर्शन और उसका आधार जीवन की ये दो वृत्तियाँ विरोधी प्राचार और विचार को प्रकट करती हैं। ये दोनों धाराएँ मानव-जीवन के भीतर रही हुई दो भिन्न स्वभाव-वाली वृत्तियों की प्रतीक मात्र हैं। ब्राह्मण परम्परा का उपलब्ध मान्य साहित्य वेद है। वेद से हमारा अभिप्राय उस भाग से है, जो संहिता-मंत्रप्रधान है । यह परम्परा मूल में 'ब्रह्मन्' के आसपास शुरू और विकसित हुई है, ऐसा प्रतीत होता है । 'ब्रह्मन्' शब्द के अनेक अर्थ होते हैं । यहाँ पर हम केवल दो अर्थों को समझने का प्रयत्न करेंगे। पहला स्तुति या प्रार्थना और दूसरा यज्ञयागादि कर्म । वैदिक मन्त्रों और सूक्तों की सहायता से जो नाना प्रकार की प्रार्थनाएँ एवं स्तुतियाँ की जाती हैं, वह 'ब्रह्मन्' कहलाता है। वैदिक मन्त्रों द्वारा होने वाला यज्ञयागादि कर्म भी 'ब्रह्मन्' कहलाता है । इसका प्रमाण यह है कि उन मन्त्रों एवं सूत्रों का पाठ करने वाला एवं यज्ञयागादि कर्म कराने वाला पुरोहितवर्ग 'ब्राह्मण' वर्ग कहलाता है। ___इस परम्परा के लिए 'शर्मन्' शब्द का प्रयोग भी होता है । यह 'श्रृ' धातु से बनता है, जिसका अर्थ होता है-हिंसा करना । यहाँ यह प्रश्न उठता है कि 'शर्मन्' का अर्थ हिंसा करने वाला तो ठीक है, किन्तु किसकी हिंसा ? इस प्रश्न का उत्तर-'शृणाति अशुभम्' अर्थात् जो अशुभ की हिंसा करे वह 'शर्मन्' इस व्युत्पत्ति से मिलता है। जहाँ तक अशुभ की हिंसा का प्रश्न है वहाँ तक तो ठीक है, किन्तु अशुभ क्या है, इस प्रश्न का जहाँ तक सम्बन्ध है, वैदिक परम्परा में मनुष्य के बाह्य स्वार्थ में बाधक प्रत्येक चीज अशुभ हो जाती है । याज्ञिक हिंसा का समर्थन इसी आधार पर हुया है । "मा हिंस्यात् सर्वभूतानि" कह कर 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' का नारा लगाने का प्राधार मनुष्य का भौतिक स्वार्थ ही है। यज्ञ का अर्थ उत्सर्ग या त्याग है, यह ठीक है, किन्तु किसका उत्सर्ग ? यहाँ पर फिर वैदिक परम्परा वही अादर्श सामने रखती है । त्याग और उत्सर्ग के नाम पर दूसरे प्राणियों को सामने रख देती है और भोग और आनन्द के नाम पर मनुष्य स्वयं सामने आ धमकता है । अपने सुख के लिए दूसरे की आहुति देना, यही इस परम्परा का आदर्श
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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