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________________ जैन-दर्शन उठ जाता अथवा नीचे नहीं गिर जाता, तब तक वह इन दोनों धारात्रों में प्रवाहित होता ही रहता है । ब्राह्मण संस्कृति या वैदिक संस्कृति दोनों धाराओं में से एक धारा की प्रतीक है । श्रमणसंस्कृति या संत-संस्कृति दूसरी धारा पर अधिक भार देती है। एक समय ऐसा आता है जिस समय पहली धारा का मानव समाज पर अधिक प्रभाव रहता है। दूसरा समय ऐसा होता है, जब दूसरी धारा का विशेष प्रभाव होता है। यह परम्परा न कभी प्रारम्भ हुई है और न कभी समाप्त होगी। यह प्रवाह अनादि है, अनन्त है । दोनों धाराएँ इस प्रवाह में रही हैं, आज भी हैं और आगे भी रहेंगी। उन पर न काल का विशेष प्रभाव है, न विकास का ही कोई खास असर है । काल और विकास उन्हीं के दो रूप हैं। ब्राह्मण संस्कृति : ब्राह्मण और श्रमण परम्परामों में उतना ही अन्तर है, जितना . भोग और त्याग, हिंसा और अहिंसा, शोषण और पोषण, अन्धकार और प्रकाश में अन्तर है । एक धारा मानव-जीयन के बाह्य स्वार्थ का पोषण करती है तो दूसरी धारा मनुष्य के यात्मिक विकास को बल प्रदान करती है। एक का आधार वैषम्य है तो दूसरी का आधार साम्य है । इस प्रकार ब्राह्मण और श्रमण परम्परा का वैषम्य एवं साम्यमूलक इतना अधिक विरोध है कि महाभाष्यकार पतंजलि ने अहि-नकुल एवं गो-व्याघ्र जैसे शाश्वत विरोध वाले उदाहरणों में ब्राह्मण-श्रमण को भी स्थान दिया। जिस प्रकार अहि और नकुल, गौ और व्याघ्र में जन्मजात विरोध है, ठीक उसी प्रकार ब्राह्मण और श्रमण में स्वाभाविक विरोध है ।' आचार्य हेमचन्द्र भी अपने ग्रन्थ में इसी बात का समर्थन करते हैं। इन उदाहरणों को उपस्थित करने का अर्थ यह नहीं कि ब्राह्मण और श्रमण, समाज में एक साथ नहीं रह सकते । इसका अभिप्राय केवल इतना ही है कि जोवन के ये दो पक्ष एक दूसरे के विरोधी हैं । १-महाभाष्य २,४,६ २-सिद्धहैम ३, १. १४१ .
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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