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________________ (१३७) उस काल उस समयमें श्रमण भगवान महावीर पधारे। उन्हें वन्दना करनेको परिपद् गई । धर्मोपदेश सुन सब पीछे आये । इसके बाद श्रमग भगान महावीरने गौतमसे कहा" हे गोत्तम । इस राजहीमें मेरा अंतेवामी (शिप्य) महाशतक श्रावक है। उसने पापधशालामें अखिरी मरण समयकी संलेखना कर धर्मध्यानमें विचरते हुए अवधिज्ञान उत्पन्न हो जाने पर अपनी स्त्री रेवतीक मोहक वचनेसि ऋद्ध होकर उससे कहा कि-'हे रेवती गाथापत्नी ! तू सात अहोरातमें . अलस रोग उत्पन्न होकर मरेगी और रत्नप्रभा नरकमें नायगी।' हे गौत्तम ! श्रमणोपासक श्रावकको अखिरी संलेखनामें सदविद्यमान सच्ची बात होनेपर भी अमनोज्ञ और कठोर वचन कहना योग्य नहीं है । * तुम महाशतकको जा कर कहो कि तुम यहीं आलोचना करो, निन्दो और भायश्चित लो।" इस तरह कहनेसे श्री गौत्तम स्वामी राज * यहां पर हमें 'नो सलु कप्पइ गोयमा ! समणोपासहस्स अगिही अर्कतहीं अपीएही अमणुनेही वागरणेही “ आदि पटते २ 'मनुस्मृति'का श्लोक याद आता है. पाठक मिला कि अप्पोएहीं से क्या समानता है: सत्यं यात्प्रियं कुर्यान्न बृयात् सत्यमप्रिय प्रियं च नानत यादेप धर्मः सतातनः ॥ मनुस्मृति अ. ४ श्लोक १३८ सव बोलो और प्रिय बोलो । उस स वको मत कहो जो प्रिय नहीं है । उस प्रियको भी न बोलो जो सच नहीं है। यही सनातन धर्म है। पाठकगण ! शास्त्रका के व वन कैसे एक दूसरे मिलते है यह इस संमलसे कुछ २ ध्यान में आ सकता है । इंढने घालेको ऐसी बहुतसी बातें मिल सकती हैं। (हिन्दी अनुवादक)
SR No.010320
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages67
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_upasakdasha
File Size3 MB
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