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________________ (१७) आठमो अधिकार. परब्रह्मनुं स्वरूप केवु छे ? परोपकारपरायण, वीतराग, सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी आप्तोए परब्रह्मनु निवेदन आ प्रमाणे कर्युछे. परब्रह्म निर्विकार, निष्क्रिय, निर्माय, निर्मोह, निर्मत्सर, निरहंकार, निःस्पृह, निरपेक्ष, निर्गुण, निरंजन, अक्षर, अनाकृति, अनंतक, अप्रमेय, अप्रतिक्रिय, अपुर्नभव, महोदय, ज्योतिर्मय. चिन्मय, आनंदमय, परमेष्ठि, विभु, शाश्वत स्थितियुक्त, रोधविरोधरहित, प्रभासहित, जगत् जेनुं निसेवन करेछे अने जेनाध्यानना प्रभावथी भक्तोनी निवृत्ति थायछे एवा ईश्वररूपछे. शुं परब्रह्म सृष्टिनुं कारण छे अने युगान्ते परब्रह्ममांज जगत लीन थायछे ? परब्रह्मने सृष्टि रचवानुं कंइ प्रयोजन नथी तेम तेमाटे तेने कोइ *मेरनार पण नथी. जो परब्रह्मे सृष्टि रची होय तो ते आवी केम रचे? आ जगत् जन्म, मरण, व्याधि, कषाय, जुगार, काम अने दुर्गतिनी भीतिथी व्याकुळ छे. परस्पर द्रोह अने विपक्षथी लक्षित छे. वाघ, हाथी, साप अने वींछीथी व्याप्त छे. पारधी, माछी अने खाटकीथी संचित छे. चोरी अने जारादि विकारोथी पीडित छे. कस्तुरी, चामर, दांत अने चामडा माटे हरिणो, गायो, हाथी अने चित्ताओ, घातक छे. दुर्भिक्ष, दुर्मारि अने विड्वरादिथी कलित छे. दुर्जाति, दुर्योनि अने कुकीटोथी पूरित छे. विष्टा, दुर्गन्ध अने फलेवरोधी आंकित छे. दुष्कर्मने निर्माण करनार मैथुनथी अंचित छे. सप्तधातुथी निष्पन्न शरीरोथी समाश्रित छे. प्रचण्ड पाखण्डघटाथी ___ * कालस्वभावादि सर्व ब्रह्मगत छ,-कर्तृवादी.
SR No.010318
Book TitleJain Tattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Jain Sabha Bhavnagar
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages249
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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