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________________ 1 . 1 (१२) पांचमो अधिकार. - परमेष्ठि संज्ञावाला सिद्धात्मा अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख अने अनंत वीर्यथी दीप्त छे. ते सिद्ध जीवो कर्मोने केम ग्रहण करता नथी ? जो एमने सुख छे तो शुभ कर्मोनुं ग्रहण करतां कोण निषेधेछे ? सिद्धात्माने कर्मग्रहणनो अयोग छे. कारण के कर्मोनू ग्रहण सूक्ष्म तैजस कार्मण शरीरवडे थायछे, जेनो सिद्धात्माने अभाव छे. सिद्धात्माने ज्योतिष् , चिद् अने आनंदना भर-( समूह ) थी सदा तृप्ति होयछे. सुखदुःखनी प्राप्तिना कारणभूत कालस्वभावादि प्रयोजकोनो सिद्धात्माने अभाव छे. सिद्धात्मा निरंतर निष्क्रिय छे. अथवा, सिद्धात्मानुं सुख वेदनीय कर्मना क्षयथी उत्पन्न थयेलं अनंत छे अने कर्मो सान्त छे तेथी पण-अर्थात् अतुल्य मानने लीधे को सिद्धना सुखना हेतु थइ शके नहि. तात्पर्यके, सिद्धात्मा कमोनुं ग्रहण करता नथी. जेम लोकमां क्षुधा अने तृषाथी मुक्त मुतप्त जीवने तृप्तिनी काळमर्यादा होती नथी, जितेन्द्रिय तुष्ट योगीने कंड पण ग्रहण करवानी वांछा होती नथी अथवा जेम पूर्ण पात्रमा कंइ पण मातुं नथी तेम सदा चिदानंदामृतथी परिपूर्ण सिद्धात्मा किंचित् कर्मग्रहण करता नथी. जेम मनुष्यने अद्भुत नृत्यदर्शनथी मुख थायछे तेम सिद्धोने विश्वना वर्तावरूप नाटकना प्रेक्षणथी नित्य मुख वर्तेछे. सिद्धोने कर्मेन्द्रिय, ज्ञानेन्द्रिय के शरीर केइ नथी तो तेत्रो अनंत मुख केवी रीते प्राप्त करेछे ?
SR No.010318
Book TitleJain Tattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Jain Sabha Bhavnagar
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages249
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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