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________________ ( ७२ ) यहां कोई ऐसा कहे कि आश्रव के तो पांच भेद हैं, उसमें साधु का भेद कौन से आश्रव में है ? उन्हें ऐसा कहे कि पांचवें योग आश्रव में है, चलना, उठना बैठना, सोना, भोजन करना, भाषण करना ये छः योगों के व्यापार है । इनका असमर्थता के कारण सेवन करना पड़ता है, इनके छूटने पर मुक्ति प्राप्त होती है, आश्रव रुकते हैं । श्री उत्तराध्ययन सूत्र के उन्नतीसवें अध्याय के ३७वें सूत्र में 'जोग पच्चक्खाणं अजोवितं जणयइ, अजोर्गीण जीवे नवं कम्मं न बंध, पुव्वबंधंच निज्जरेह' इति वचनात् यहां मूल की अपेक्षा आहार तो योगों के व्यापार में है परन्तु इनको करते हुए आश्रव दूसरों को लगता है । जिस प्रकार श्री भगवती सूत्र के पांचवें शतक के छुट्टे उद्देश्य में किराणा वेचते हुए सम्यगदृष्टि को चार क्रिया कही मिथ्यात्वी को पांच क्रिया कही यहां व्योपार तो मिथ्यात्वी नहीं परन्तु जीव मिथ्यात्वी है इसलिए मिथ्यात्व भी लगता है । इस न्याय से केवली के आहार में योग आश्रव लगता है । प्रमादी साधु को तीन आश्रव लगते हैं, अती को चार आश्रव लगते है एवं मिथ्यात्वी को पांचों ही आश्रव लगते हैं इसलिए प्रमादी साधु को आहार करते समय प्रमाद भी लगता है उसको रोकने के लिए पच्चक्खाण करता है । कोई कहे कि भगवान ने आश्रव की
SR No.010317
Book TitleJain Tattva Shodhak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTikamdasmuni, Madansinh Kummat
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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