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________________ (६५) हैं। भाव मिथ्यात्व-जिसके उदय से शुभाशुभ क्रिया करे, उनसे शुभाशुभ कर्म आवे उसे अप्रत्याख्यानी की चौकडी कहते हैं तथा अवती कहलाता है और एक अपेक्षा से प्रत्याख्यानी को भी कहते हैं । अप्रत्याख्यानी की चौकड़ी का उदय चौथे गुणस्थान तक है । इमलिए चौथे गुणस्थान वाले को असंयती, अवती, अपच्चरखाणी एवं अधर्मी कहा है । इसके आगे पांचवें गुणस्थान में अप्रत्याख्यानी नही कहलाता है। श्री भगवती सूत्र के पहिले शतक के दूसरे उद्देश्य में पांचवे गुणस्थान में अवतिगढ़ कहा है तथा पन्नवणा मूत्र में पांचवें गुणस्थान में अपञ्चक्खाणी क्रिया कही है। पांचवां गुणस्थान व्रताव्रती, धर्माधर्मी,पच्चक्खाणा-पञ्चक्खाणी,वाल पंडित, सुप्त जागृत, संयतासंयति कहलाता है तथा श्री भगवती सूत्र में अव्रत की क्रिया लगना कहा है। कर्म ग्रंथ आदि ग्रंथों में भी श्रावक के ग्यारह अत्रत कहे हैं एक बस की टाली है, छ? गुणस्थान से अप्रत्याख्यानी एवं प्रत्याख्यानी चोकड़ियां नहीं, इसलिए व्रती, धर्मी, संयति पच्चक्खाणी, पण्डित एवं जागृत कहलाता है शेष नौ नो कषाय एवं संज्वल की चोकड़ी रहती है, उसे अत्रत नहीं कहते हैं, इसलिए साधु के कार्यों मे अत्रत नहीं, साधु जो उठना, बैठना, हिलना, चलना भोजन एवं भाषा प्रमुख क्रिया करते हैं वे सब प्रमाद कषाय योष के उदय से हैं अतः वे आश्रय है,
SR No.010317
Book TitleJain Tattva Shodhak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTikamdasmuni, Madansinh Kummat
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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