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________________ (५७) स्वामिवच्छल प्रभावना को समकित का आचार कहा है, श्री ठाणांग सूत्र में चतुर्विध संघ में श्रावक को रत्न का पात्र कहा है । एवं श्री भगवती सूत्र में श्रावक को रत्न की माला समान कहा है, परन्तु आठ दान वाले को रत्न का पात्र व रत्न की माला के समान नहीं कहा । यहां कोई कहे कि 'उसको मूझता देने से अठारह पाप में से कौनमा पाप लगता है ? क्योंकि उन्नीसवां पाप तो है नहीं' उनसे ऐसा कहें कि 'गृहस्थ को साधु आने जाने के लिए कहे तो अट्ठारह पाप में से कौनसा पाप लगता है ? तब वे कहे कि गृहस्थ को आने को किस प्रकार कहे ? तो उसके दान में पुण्य किस प्रकार कहे ? आने जाने की कहने से उसके पाप की अनुमोदना होती है। इसी प्रकार दातार को भी पाप की अनुमोदना आती है । क्योंकि लेना देना दोनों अत्रत में है। प्रश्न होता है कि पडिमाधारी पांचवें गुणस्थान में है या छठे गुण स्थान में ? इसके उत्तर में कहे कि छट्टे गुण स्थान में नहीं । तो पांचवें गुणस्थान वाले को देने से सावध पुण्य है, निर्वद्य नहीं, इसलिए वह दान में किस प्रकार सम्मिलित हो ? तथा चतुर्विध संघ के हित वात्सल्य से सनत्कुमार इन्द्र हुआ ऐसा कहा परन्तु आठ दान से हुआ ऐसा नहीं कहा, वह धर्मदान में है यहां श्रावक को
SR No.010317
Book TitleJain Tattva Shodhak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTikamdasmuni, Madansinh Kummat
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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