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________________ अजीव का ग्यारहवां भेद-'पुद्गलास्तिकाय का खंध" द्रव्य से अनंत, क्षेत्र से जघन्य एक, उत्कृष्ट अचित महा खंध की अपेक्षा सम्पूर्ण लोक अवग्रहित, काल से जघन्य एक समय, उत्कृष्टया असंख्याता, भाव से एक वर्ण, एक गंध, एक रस, दो स्पर्श सहित । कई एक में पांच वर्ण, पांच रस, दो गंध, आठ स्पर्श मिलते हैं। गुण से जो ग्रहण की जाय, गल जाय, मिल जाय, दिशा में प्रकाशं करे, तपे, अंधकार करे, शब्द , रूप, रस, गंध, स्पर्श, भले से बुरा एवं बुरे से भला हो। ___ अजीव का बारहवां भेद- "पुद्गलास्तिकाय का देश" द्रव्य से अनन्त, क्षेत्र से जघन्य एक आकाश, उत्कृष्टा असंख्यात योजन का क्रोडा क्रोड़ प्रमाण । काल से जितने समय तक चिंतन हो तथा भांगे की अपेक्षा संख्यात असंख्यात काल । भाव से वर्ण, गंध, रस, स्पर्श सहित गुण से ग्रहण गुण । ___ अजीव का तेरहवां भेद "पुद्गलास्तिकाय का प्रदेश" द्रव्य से अपनी २ अपेक्षा से एक और सबकी अपेक्षा से अनंत पर वह सर्व जीव राशि से अनन्त गुणा, क्रोड़ गुणा अवठियो (अवस्थित) है । क्षेत्र से एक प्रदेश प्रमाण, काल से शाश्वत आदि अंत रहित, किसी भी समय पुद्गल से अपुद्गल नहीं होता । भाव से शब्द वर्णादि सहित रूपी, गुण से ग्रहण गुण । . .,
SR No.010317
Book TitleJain Tattva Shodhak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTikamdasmuni, Madansinh Kummat
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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